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________________ ७६ वचन-साहित्य-परिचय मनुष्य प्राणी कभी सुख और कभी दुःखके द्वन्द्वमें उलझ जाता है । इसलिए वचनकार कहते हैं, अरे ! तुम्हें स्वर्ग-सुखभी मिला, किंतु जिस क्षणमें मिला उसी क्षण में समाप्त हुआ । तुम्हें यह देखनेका भी समय नहीं मिला कि वह सुख था या दुःख ! तव उस सुखकी कीमत ही क्या ! सुख पाओ तो ऐसा सुख पायो कि एक बार पानेके बाद वह सदाके लिए तुम्हारा हो जाय । ऐसा शाश्वत सुख, विशुद्ध सुख, निरालम्ब सुख, कैसे पाया जाय ? उस मायातीतः शिवको अपना सर्वस्व समर्पण करो। उसकी शरण जाओ। एक बार उसके चरणोंका आसरा मिला कि बस शाश्वत सुख-भंडारके स्वामी बने । इस शाश्वत सुखको ही मुक्ति कहा है। यही मानवी जीवनका एक मात्र आत्यंतिक ध्येय है। __अब वचन साहित्यके पारिभाषिक शब्दों द्वारा इसका विवेचन करना हो तो लिंग ही परतत्व है । अंग ही जीव है । लिंग पूर्ण है । अंग अपूर्ण है । अंग का यह अपूर्णत्व मायाके कारण है। यही रुकावट है। यह रुकावट दूर होते ही निरभ्र नील-गगनमें निर्मित इंद्र-धनुष जैसे उसी आकाशमें विलीन होता है, शांत हवामें से उद्भूत ववंडर जैसे उसी हवामें डूब जाता है, वैसे ही अंग लिंगमें ऐक्य होकर उसीमें विलीन हो जाएगा। यह लिंगांग सामरस्य है। इस सामरस्यसे, अथवा ऐक्यसे, अथवा विलीनीकरणसे, अंगकी अपूर्णता नष्ट होगी । उसके सुख-दुःख आदि द्वंद्व गल जाएंगे । और परिपूर्णताके लक्षण उमड़ पड़ेगे। यही अद्वैतानंद है । यही सारुप्य मुक्ति है। यही परम गति है । यही मानव का साध्य हैं। इस मुक्तिको वचन साहित्यकी परिभाषाके अनुसार षट्-स्थलका ऐक्य-स्थल कहते हैं । वचनामृत के ४६-५७ और ५८वें वचन यही कहते हैं। इस साध्यको प्राप्त करनेके प्रयासको साधना कहते हैं। इस साधनासोपानके अथवा साधना-पथकी छः सीढ़ियां अथवा छः पड़ाव हैं । उन्हें वचनकार पट्-स्थल अथवा षडध्व कहते हैं। साधना-पथपर कदम रखनेके पश्चात् 'सिद्धः पद', अथवा वचनकारोंका 'शून्य संपादन' करने तक बीचके ये छः पड़ाव हैं । साधना-पथमें साधक किस स्थलपर है, वहांसे जीव और शिव अथवा अंग और लिंगका क्या संबंध है, यह पद-स्थल-सिद्धांत स्पष्ट करता है। सृष्टिके मूल में प्रवृत्ति है । और भक्तिके मूल में निवृत्ति । सृष्टि माया-शक्तिका कामः है। और मुक्ति भक्तिका परिणाम | अंग-लिंग अथवा जीव-शिवका संबंधः पूज्य-पूजक अथवा सेव्य-सेवकका-सा है। मायासे विषयासक्ति निर्माण होती है और भक्तिसे लिंगासक्ति । साधना और भक्तिसे धीरे-धीरे अंग मायासे दूर होते-होते लिंगके समीप होता जाता है और, अन्तमें लिंगमें विलीन हो जाताः
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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