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________________ साम्प्रदायिक स्वरूप अथवा षटस्थल-शास्त्र . ७५ मूलतः जीव चैतन्यस्वरूप है। किंतु वह त्रिविध मलपाशसे अावद्ध है । इससे वह अल्पज्ञ, अल्पशक्त हुा । अहंभावसे सुख-दुःखका भोग करने लगता है। प्रकृति आदि तत्त्वोंका बना हुअा स्थूल शरीर धारण कर लेता है । और तीनों प्रकार के मल-पाशसे श्रावद्ध होकर अहंकार-वश पुनः पुनः जन्म-मरणके प्रवर्तनमें पड़ता है । किंतु यह मूलतः मूल चैतन्यका ही अंश है। वीज रूपसे सच्चिदानंद है । इसलिए वह अपने "निजत्व" को अथवा सत्यरूपको प्राप्त करना चाहता है । वह अपने इस ध्येयको प्राप्त करनेका जो प्रयास करता है उसे साधना कहते हैं। साधकको, तत्वज्ञानके इस सिद्धान्तका, अपने जीवनकी आशा-आकांक्षाओं का प्रत:करण करके, संशोधन करके, जीवनके प्रात्यक्षिक ध्येयके साथ उसका विरोध न प्राते हुए, इन दोनोंमें अविरोधी मेल बिठाकर उस प्रात्यतिक 'ध्येयको प्राप्त करनेका प्रयास करना चाहिए। इस तत्त्वज्ञान के अनुसार जीव उस एकरस महान बैतन्य सागरका, अथवा चित्-सागरका एक अल्पसा अंश है ; मानो छोटा-सा तुषार करण हो। वह पृथक् होकर चित्तके प्रावरण, शक्ति, अहंकार आदिके कारण अल्पज्ञ है। अल्पशक्त है । अथवा महान चिज्योति का छोटा-सा स्फुलिंग है । वह अल्पज्ञता अहंकार आदिके बवंडरमें फंस कर इस संसार-सागरके द्वन्द्वोंके थपेड़ोंमें चूर-चूर हो रहा है। फिर भी वह महान् ज्योतिर्मयका स्फूलिंग है। इससे मायाजन्य दुर्वलताका कवच तोड़ कर, विविध मलपाशोंको तोड़कर मुक्त होना चाहता है। प्रत्येक जीवकी यह अाशा है । यही आकांक्षा है । इसलिए वह तड़पता है । प्रत्येक जीव, प्रत्येक अवस्थामें, जैसे जागृतावस्थामें, स्वप्न और सुपुप्तिमें, सुखकी आकांक्षा करता है। चाहे वह अल्पज्ञानी हो या महाज्ञानी, चाहे श्रीमान हो या अकिंचन, चाहे अज्ञानी हो या विज्ञानी, चाहे विद्वान हो या अपड़, चाहे भूपाल हो या गोपाल, चाहे स्त्री हो या पुरुष, चाहे बालक हो या वृद्ध, सभी सुख चाहते हैं। इन सबकी आशा आकाँक्षा एक है। सवकी महत्त्वाकांक्षा एक है । और वह है सुख । शाश्वत सुख । नित्य सुख । कभी दुखका कारण न वनने वाला सुख । जीवनका अर्थ ही सुखकी खोज है। जीव अथवा प्रत्येक जीवधारी इसी सुखकी खोजके लिए भटकता है । क्षणिक सुखोंके पीछे पड़ता है। उसके 'पाते ही सुखी होता है । खोते ही फिर दुखी। इससे प्राप्त सुख समाप्त होकर नये दुःखका कारण बनता है । इसलिए वह दुःख मिश्रित सुख है। इससे सुखकी तृष्णा और भड़कती है। मायाका कार्य यही है। सुख आते ही उसके पीछे छिपे हुए दुःख पर वह परदा डालती है। सुखके हाथमें आते ही दुःख परसे परदा हटाती है। इससे मनुष्य शाश्वत सुखकी नोर नहीं मुड़ता। शाश्वत -सुख और जीव इस बीच में मायाका परदा है, अथवा इस अंधकारकी छाया है।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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