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________________ साम्प्रदायिक स्वरूप अथवा षट्स्थल शास्त्र (४) सर्वत्र मुक्ति ही मानवमात्रका साध्य माना गया है। किंतु आगमोंमें कहीं-कहीं आया है कि 'भुक्ति-मुक्ति' ये दोनों साध्य हैं। अनेक स्थानों पर 'मोक्षको ही एकमात्र साध्य माना गया है । जैसे वातुल में 'भुक्ति-मुक्ति प्रदायक' “(वा० ५० १ श्लो० ७), सूक्ष्म में 'भुक्ति मुक्तिच विंदति' (सू०प० ३ श्लो०१४), उसीमें "भुक्ति-मुक्तिफलेच्छुना" (सू० प० ३० श्लो० ७०), "भोग मोक्षक साधनं" (पार० प०१ श्लो०३६), आदि कहा गया है। अर्थात् भुक्ति और मुक्तिका अर्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है । 'भुक्ति-मुक्ति' इन दो शब्दोंमें उन्होंने चतुर्विध पुरुषार्थों का समन्वय किया है। (५) भागमों में अनेक स्थानों पर वेदका उल्लेख आया है । जहाँ कहीं वेदका उल्लेख है वहाँ उसका महत्व और उसकी श्रेष्ठता स्वीकार की है। जैसे षडक्षर मंत्रको कहते समय अनेक शिवागमोंमें लिखा है, "प्रमाणभूतः सर्वेषाम् 'वेदोक्तत्वद्विशेषतः” (सू० प०३. श्लो०१६), "वेदेच वेदशीर्षे च उभयत्र षड 'क्षरः" (पा र०प०११. श्लो० ४) । वैसे ही "वेदधर्माश्च शाश्वताः वेदाः सांगाः'सनातनाः वेदागमपुराणांतम् सारभूतं, सर्वेवेदाश्च शास्त्राणि" तथा "यथा वेद समो मंत्रो नास्तेवागमकोटिषु" (सू० प० ३. श्लो० १०५) आदि अनेक उल्लेख हैं। (६) पारमेश्वर तन्त्रके पहले पटल में वौद्ध सौगत, चार्वाक आदि अवैदिक शून्यार्थकी मंत्र-दीक्षाका उल्लेख किया है। वादमें ब्रह्मगायत्री मंत्र के वैदिक मत, सौर गायत्री मन्त्रके सौर मत, वैष्णव मन्त्रके वैष्णव मत, शिवमन्त्रके शैवमत आदिका विवेचन है । उसमें सौरके पांच, वैष्णवोंके पांच और शैवोंके सात उपभेदोंका संकेत है । यहाँ केवल शैव सम्प्रदायसे सम्बन्ध है । इसलिये केवल शैवानु. गमके उपभेदोंका विवेचन दिया गया है । शैवोंमें अनादि शैव, आदिशैव, अनुशैव महाशैव, योगशैव, ज्ञानशैव, तथा वीरशैव ऐसे सात उपभेद हैं । इनमें भी अन्य अनेक उपभेद हैं । इन सबमें 'वीरशैव' श्रेष्ठ हैं। शैव तन्त्रोंमें वीरशैव साधनाक्रम ही सर्वोत्कृष्ट है, ऐसा उसका गौरवपूर्ण उल्लेख है । सभी वचनकार वीरशव हैं । और वचन साहित्य मानो वीरशैव सम्प्रदायके वेद ही हैं । ___ इन अनादिशैव आदि सात उपभेदोंका अवांतरशैव,प्रवरवैव,अंत्यशैव आदि दूसरे नाम भी हैं । तथा उनमें भी दूसरे कई भेद हैं । इन सबका वचन-साहित्य तथा वचनकारों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिए वह सब छोड़ दिया गया है। (७) इन आगमों के अनुसार अन्य किसी मतसे शैवमत ही सर्वश्रेष्ठ है । उसमें भी वीरशैव सर्वोत्कृष्ट है । शैव शास्त्रोंपर आक्षेप करनेसे, उनका अनादर करनेसे, नरकमें दुःख भोगना पड़ेगा । आगे कीड़ों-मकडोंकी योनिमें जन्म लेना पड़ेगा । शिव तथा उनके अवतारों की निंदा करनेवालेकी जीभ काट डालनी
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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