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________________ वचनकारोंका सामूहिक व्यक्तित्व श्रीर जीवन-परिचय ४१ उन दिनों में पुलिगेरेमें जैनोंका वड़ा प्रावल्य था । ग्राज भी लक्ष्मेश्वर में बहुत जैन रहते हैं । वहाँके एक जैन वर्तककी लड़की पद्मावती से प्रादय्यका विवाह हो गया | पद्मावती पहले से ही प्रादय्यके प्रेम-पाश में बद्ध थी । इसीलिए उसने विवाह होने से पहले शिवदीक्षा ली । वह जैन वर्तक बड़ा धनी था । उसकी दूसरी कोई सन्तान नहीं थी । इससे प्रादय्य अपने श्वशुर के घर में रहने लगे । धीरे-धीरे प्रादय्यका वर्चस्व बढ़ता गया । एक दिन ऐसा गाया कि जहाँ जैन मंदिर था वहीं वह शैव- मंदिर - सोमेश्वरका - वना सके । उनके वचनों में अपने गांव, नाम, गुरु परंपरा अथवा साधनादिके विषय में कुछ नहीं मिलता । किंतु उनके वचनोंमें गहरे अनुभवकी झलक मिलती है । इससे लगता है वह उच्च कोटिके शिवशरण थे । उनके वचनोंको देखनेसे पता चलता है कि प्रपंचकी किसी उलझन में न फंसते हुए, निष्कलंक सम्यक्ज्ञान, समता, समाधान, सहज ग्रानंद प्रादिका अनुभव करनेवाले शरणों में वह भी एक थे । उनके वचनों में वेद, शास्त्र, पुराण आदिके शब्द जाल में न फंसते हुए, सौराष्ट्र-सोमेश्वर की भक्ति करनेका उपदेश मिलता है । उनके वचनोंसे पता चलता है कि वह सगुण भक्त रहे होंगे । उन्होंने शरणों की स्थितिका वर्णन करते समय लिखा है, "द्वंद्वातीत होकर, मनको न बहकने देते हुए, जहाँ रहे वहां स्थिर, जहाँ गये वहाँ निर्गमनी, बोल कर भी मौन, शरीर होने पर भी अशरीरी ऐसे शरण ही श्रेष्ठ हैं !" उन्होंने भूमध्य में जलती हुई स्वयं प्रकाशित ग्रात्म ज्योतिकी मानसोपचारिक पूजाका सुन्दर वर्णन किया है । जैसे, "स्मरण के निर्माणके बाद बने हुए मनोलय नामक पुप्प" ग्रादि । इस वर्णनको देखकर ऐसा लगता है कि वह ध्यान धारण आदिका रहस्य अच्छी तरह जानते थे । उन्होंने विराट् पुरुषका प्रत्यंत काव्यमय वर्णन किया है । उन्होंने अपने वचनों में करीब २५-३० ग्रन्य वचनकारों के गुण विशेषका वर्णन किया है। ऐसा लगता है कि वे श्रायुमें वसवेश्वर से छोटे थे । एक गुजराती भाषाभाषी व्यक्तिका कन्नड़ भाषा प्रावीण्य देखकर कुछ क्षरण मन चकित हो जाता है । यह शरण - मार्ग के अत्यंत अभिमानी और निष्ठावंत भक्त थे । (६) "सकलेश्वर " इस मुद्रिकासे वचन कहनेवाले सकलेश मादरस प्रथम कल्लुकुरी के राजा थे । इनका चरित्र वर्णन पद्म पुराणके द्वितीय अध्यायमें आया है । उसी प्रकार बसव पुराण के उन्नीसवें और बीसवें ग्रव्यायमें भी इनका जीवन वृत्तांत देखने को मिलता है । इनके पिताका नाम मल्लरस था । वह भी अपनी वृद्धावस्था में राज्य-भोग
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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