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________________ वचनकारोंका सामूहिक व्यक्तित्व और जीवन-परिचय अक्क महादेवीका अल्प-सा पवित्र जीवन, अनुभव मंटपके अन्य शरणोंके साथ हुया उनका संभाषण, उनके वचन, उनका व्यवहार चातुर्य, उनका साहस, उनकी धर्मपरायणता उनकी भक्ति, और उनका साक्षात्कारका अनुभव एकसे एक बढ़कर अधिक तेजस्विताके साथ चमकते हैं। मानो आकाशमें अनंत नक्षत्र अपने प्रकाश दिखानेकी होड़ कर रहे हों ! उनका जीवन भी भव्य, एवं आकाशकी तरह निर्लेप है। (४) लक्कम्मा, शरणों के खेतों में, प्रांगनमें, तथा अन्यत्र जहां-तहां पड़े अनाजके दानोंको चुनकर प्राप्त धान्यके कायकसे अपनी जीविका चलानेवाले आयदक्कि मारय्यकी धर्मपत्नी। उस समय में यह व्यवसाय कहलाता था, भिक्षा नहीं । मारय्याकी यह मान्यता थी, "कायक ही कैलास हैं ।" "लिंग-पूजा, अथवा गुरु-पूजा रुकी तो क्षम्य है, किंतु कायक रुका तो क्षम्य नहीं।" एक बार वह अल्लम प्रभुके घर गये। अल्लम प्रभु उनसे बातचीत करने लगे, "कर्म करनेकी क्रियासे ही अन्य सब ज्ञान होना चाहिये । किंतु क्रिया कर्मके रहस्यमें चित्त न रहने से निजैक्य संभव नहीं है।" आयदक्कि मारय्य अल्लम प्रभुका उपदेश सुनने में तल्लीन हो गया। उनका उपदेश सुनने के अनंतर उनकी प्रशंसा भी करने लगा। तभी उनकी पत्नी दौड़ती-भागती हुई वहां आयी । लक्कम्माने अपने पतिसे कहा, "तुम्हारा कायक रुक गया ना' और 'कायक' का स्मरण दिलाया। पत्नीकी बात सुन कर वह अनाजके दाने चुनने के लिये भागा। बसवेश्वरके घर नित्य हजारों भिक्षुक आते थे । उनको भिक्षा देनेमें कई दाने वहां गिर जाते। उन सबको चुन कर घर पर आया । यह देखकर लक्कम्माने पतिको फटकारते हुए कहा, "राजा महाराजारोंका पीछा करने वाली आशा-तृष्णा शिवभक्तोंके पीछे भी पड़ने लगी है क्या ? हमें जिस दिन जितने की आवश्यकता है उतना ही पर्याप्त है । जो अधिक है वह सब वहीं डाल कर आओ जहांसे लाए हो ! हमें इतने में ही 'दासोहम्' करना चाहिये । अधिककी आशा उचित नहीं !" आयदक्कि मारय्याने पत्नीके कहनेके अनुसार अपना कार्य किया । तदनंतर पत्नीसे प्रार्थना की, "लिंगमें ज्ञान स्थिर होनेका ज्ञान कहो!" और ज्ञानचर्चा छेड़ दी। तब लक्कम्मा कहती है, "हमें कैलासकी आशा ही क्यों करनी चाहिए। यह २"दासोहम्" क्या कम है ?" तब पतिके पुनः 'निजैक्य' का रास्ता बतानेकी प्रार्थना करने पर उसने १. अदिनंदिगे जिस दिन जितने की आवश्यकता है, २. लिंगार्पण किया हुआ प्रसाद ग्रहण
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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