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________________ २० वचन-साहित्य-परिचय . . अल्लम महाप्रभुके शब्दोंमें ही कहना हो तो "वह सिंहासन बिना अंतरंगवहिरंगका, विना अंतरावलम्बनका, बाहर न देख सकनेवाली पुष्प-शय्या पर. रंग-रूप-रहित मूर्तिमान शून्य-सा विश्व-विचित्र था !" इससे भी स्पष्ट शब्दोंमें वसवेश्वरने कहा है, "परमात्माकी प्रतीक्षामें निनिमेष देखते समय वे आकर मेरे हृदय-सिंहासन पर बैठ गये !" अनुभव-मंटपका शून्य सिंहासन महंतोंकी गद्दी की तरह कोई भौतिक मठकी गद्दी नहीं थी। यह कहने के लिए ऊपर दिये प्रमाण पर्याप्त हैं ! अल्लम प्रभुकी अध्यक्षतामें चलनेवाली इन ज्ञानगोष्ठियोंमें अनुभवके अलावा अन्य बातोंके लिए यत्-किचित् भी स्थान नहीं था। अल्लम प्रभुका स्पष्ट निर्देश था "अनुभावसे अनभिज्ञ लोगोंसे" तथा "जहां-तहां अनुभावकी बातें नहीं करनी चाहिए।" इससे यह स्पष्ट होता है कि अनुभव-मंटपकी ज्ञान-चर्चा आजके काफ़ी-हाउसकी चर्चाकी तरह नहीं थी। महादेवी अक्का उडुतडीकी रानी थीं। सिद्धावस्थामें वह अनुभव-मंडपमें पाई। जिस समय वह अनुभवमंटपमें आई उनकी स्थिति अद्भुत थी। उनके शरीर भाव नष्ट हो चुके थे। वह दिगंवरा थी। दैवी उन्मादमें उन्मत्त थीं। ऐसे समय भी अल्लम प्रभुने जो प्रश्न पूछे उन्हें देखने से लगता है अल्लम प्रभुके सामने अनुभावकी चर्चा करना लोहेके चने चबानेसे कम नहीं था। अल्लम प्रभु, बसवेश्वर आदि अनुभावी अपने प्रश्नोंसे आगंतुक साधकोंका अंतःकरण छील-छीलकर देखते थे। अनुभव-मंटपमें स्थान पाना, आजकल जगह-जगह पर पाए जानेवाले अाधुनिक साधुनोंके मठों और आश्रमोंमें स्थान पाने जैसा सुलभ नहीं था। महादेवी अवका वहां कहती हैं, "अाशा, तृष्णा, आदिका त्याग करने से पहले अंतर-बाह्य शुद्ध होने से पहले, मैं कौन हूँ यह जाननेसे पहले, यहां पर पैर नहीं रखना चाहिए-यह मैं जानती हूँ !" इस वचनसे पता चलता है कि अनुभव-मंटप कैसा था। वह तो आत्मानुभूतिका दिव्य-केंद्र था। वहां जीवनके प्रत्येक पहलूको अधिकसे अधिक शुद्ध, उज्ज्वल तथा लोकोपयोगी बनाते हुए उसका दिव्यीकरण कैसे किया जाय, उस विषय पर चर्चा होती थी । अनुभव, आचार-विचार, धर्म-नीति,चाल-चलन आदि जीवनके प्रत्येक पहलू पर प्रकाश डालनेवाले वचन आज उपलब्ध हैं। वह जीवनको समग्न मोनकर उसका विचार करते थे। अनुभव-मंटपमें ऐसे कितने लोग थे, इसके बारेमें कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। किंतु यह अवश्य कह सकते हैं कि वहां जाति, गोत्र, लिंग, वय, उद्योग, व्यवसाय आदिका कोई बंधन नहीं था। वहां राजा थे। रंक थे। पंडित थे । पामर थे । स्त्रियां थीं। पुरुष थे। संन्यासी थे । संसारी भी थे । उनमें केवल कर्नाटकके ही लोग नहीं थे, दूसरे प्रदेशोंके भी थे । भिन्न
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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