SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वचन-साहित्य-परिचय गुणवर्म है, शीतलता चंद्रमाका गुणधर्म है । इन सब गुणोंके अभावमें आग, पानी तथा चंद्रमाकी कल्पना भी असंभव है वैसे ही उपरोक्त गुणोंके अभावमें वचन-शैलीकी कल्पना भी असंभव है। कन्नड़ वचन-साहित्यमें ये सब गुण उत्कटतासे पाए जाते हैं। जैसे कमलिनीके मकरंदसे उन्मत्त भ्रमर मृदु-मधुर गुजरव करते हैं, आर्द्र वनमें बैठकर कूकने वाली वसंतकी कोयल अपना कोमल पंचम पालापती है वैसे ही अपने अमृतानुभवका वर्णन करते समय वचनकार अपने इकलौते लाडले शिशु से तुतलाकर बोलनेवाली मांकी भाँति मधुसे भी मधुर और कमलसे भी कोमल पदावलीका चयन करते हैं और समाजकी विकृतियोंका खंडन करते समय, धर्म-ध्वजोंके ढोंगके कपट-जालको फाड़कर फेंकते समय, सामाजिक मूर्खमान्यताओंके विरुद्ध विद्रोह करते समय, क्रोधसे पागल सिंहकी भांति दहाड़ते हैं; तथा भक्तिके मधुर भावोंका दिग्दर्शन कराते समय, अंग और लिंग, अथवा जीव . और शिवके मधुर मिलनकी महिमा गाते समय अपने प्रियतमके गुण, रूप, और रंगका बखान करते समय, विरह-विकलतासे द्रवित चिर-विरहिणी . की भांति उनकी वाणी गद्गद हो जाती है । प्रत्येक वचन मानों उनकी गहरी और तीव्र अनुभूतिका दर्पण है । इस वचन-शैलीने कन्नड़ भाषाकी अभिव्यंजना शक्तिको अपरिमित बल दिया है। उसकी अपार वृद्धि की है । आज एक सहस्र वर्षके बाद भी ये वचन आजके साहित्यको केवल स्फूर्ति और प्रेरणा ही नहीं देते, ऊंचे दीप-स्तंभकी भांति मार्ग-दर्शन भी करते हैं । यह इस वचनसाहित्य और शैलीकी सफलताका मापदंड है ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy