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________________ वचन साहित्यका साहित्यिक परिचय यह बुढ़ापेका कितना सुंदर चित्ररण है ! ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं 1. वचनकारोंने अधिकतर उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपकका प्रयोग किया हैं । इसी प्रकार उनके व्यंग भी कम चुभने वाले नहीं हैं । वर्ण-भेद और जाति-भेदके पक्ष -. पातियों से वह स्पष्ट सवाल पूछते हैं "ब्राह्मणकी श्रात्मापर जनेऊ था ? स्त्रियोंकी आत्माके स्तन होते हैं ? चांडालकी प्रात्मा के हाथमें झाड़ थी ?” केवल रामनाम लेनेसे सबकुछ हो जाएगा, ऐसा कहने वालोंकी हंसी उड़ाते हुए व्यंग्य करते हैं, ' मिष्टान्नके स्मरण से पेट भरेगा ? धनके स्मरणसे दारिद्रय मिटेगा ? रंभा स्मरणसे कामवासना मिटेगी ?' यादि । वचन - साहित्य में पाए जानेवाले शब्द तथा प्रर्थालंकार, वचनों में पाया जानेवाला रचना - कौशल, उनके दृष्टांतों में पाई जानेवाली कल्पनाका गगन विहार तथा अमूर्त भावोंको स्पष्ट रूप से व्यक्त कर बताने वाली अभिव्यंजना-शक्ति, ग्रदृश्य सत्यको दृश्य जगतमें लाकर प्रकाशित करनेवाली भूतपूर्व प्रतिभा किसी भी श्रेष्ठ प्रकारके काव्यसे कम नहीं है । यह एक प्रकारका उत्तम गद्य-काव्य है । किसी भाषा साहित्यकी, किसी भी शैलीकी कुछ मर्यादाएं होती हैं, कुछ सीमाएं होती हैं, कुछ गुण-दोष होते हैं । उनका थोड़ा-सा विवेचन करके इस अध्यायको समाप्त करें । साहित्यकी प्रत्येक शैलीका कुछ निश्चित उद्देश्य होता है और उपयोग भी । लेखक अपने उद्देश्यके अनुसार अपनी शैली चुनता है । साहित्यका कोई एक रूप सभी उद्देश्यों में सफल नहीं होता । वचन - शैली भी इसका अपवाद नहीं है । मनमें उठनेवाली भावोर्मियोंको, कल्पना-तरंगों को, विचारोंकी उमंगों तथा मनकी संवेदनाओंको हृदयकी वेदना - यातनात्रोंकी कसकको, थोड़से शब्द- सुमनों में गूंथकर व्यक्त करने के लिए यह शैली उत्तम है । कथोपकथनमें सर्वोत्तम है । भावोंकी अभिव्यंजना के लिए सर्वोत्कृष्ट है । इस शैलीको साधना में दीर्घ प्रयासकी आवश्यकता नहीं होती । ग्रपने हृदयकी किसी गहरी अनुभूतिको वचनका रूप देकर धनुषसे छूटनेवाले वारणकी भाँति प्रयोग किया जा सकता है । इन गुणों के कारण मन में उठनेवाली किसी प्रवल तरंग को सूत्रात्मक रूपसे लिखने में, कथोपकथन में, ग्रपने ध्येय वाक्यको अथवा स्मरगीय विषयको लिख रखने में वचन शैली प्रत्युत्तम कही जा सकती है । यह शैली अत्यंत सरल है । किंतु इस शैली में प्रभावशाली ढंगसे लिखना, ग्रथवा बोलना सबके लिए संभव नहीं होगा । वचनकार में विदुमें सिंधु भरनेकी क्षमता होनी चाहिए | जिस वचन में स्फूर्ति नहीं, प्रेरणा नहीं, भावनाका ग्रावेग अथवा उन्माद नहीं, गहरी अनुभूतिकी तीव्रता नहीं, विचारों का गांभीर्य नहीं, कल्पनाओं का गगन-विहार नहीं, अंत:करणकी संवेदना नहीं, वह वचन नहीं ! यह सब वचन के गुणधर्म हैं, स्वभाव-धर्म हैं, वैसे ही जैसे जलना आागका गुणधर्म है, वहना पानीका २१
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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