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________________ साधनामार्ग-ज्ञान, भक्ति, क्रिया, ध्यानका संबंध २६१ (३८१) क्रिया ही ज्ञान हैं और ज्ञान ही कर्म है । ज्ञानका अर्थ है जानना और कर्मका अर्थ है जैसा जाना वैसा करना । परस्त्री संग नहीं करना चाहिए यह ज्ञान हुआ और तदनुसार आचरण करना ही कर्म । विना आचरणके ज्ञान अज्ञान हो जाता है कूडलचन्नसंगमदेवा । (३८२) अंतरंगके ज्ञानके लिए प्राचार ही शरीर है, आचरणका शरीर न हो तो ज्ञानका कोई आश्रय नहीं हैं । ज्ञानको आचरणमें समाविष्ट किये हुए लिंगैक्यको क्रियावद्ध कहना पंच महापातक करने के समान है। यही भावपूर्ण भक्ति भजन भी है । तुम्हारे ज्ञानका सांचा बनकर, प्राचारका सेवक बनकर गुहेश्वर तुम्हारे अधीन हुए हैं अब अपनी सुख समाधि दिखायो सिद्धरामैया। ... (३८३) कस कच्चे फलमें रहता है फल पकनेपर वह नहीं दिखाई देता। शारीरिक कार्य करके जीव ज्ञान प्राप्त करनेके अनंतर विविध भाव शुद्ध हुए विना कपिलसिद्ध मलिकार्जुनलिको नहीं देखा । (३८४) वीज में स्थित वृक्षका फल कभी चखा जा सकता है ? वर्षाके दमें स्थित पानीदार मोतियोंकी मुक्तामाला क्या पहनी जा सकती है ? खोजते रहनेपर भी दूधमें घी मिलेगा? ईखमें जो गुड़ है वह ईखमें दिखाई देगा ? अपनेमें छिपा हुआ शिवतत्त्व केवल स्मरण करनेमात्रसे प्राप्त होगा ? भावनासे, ज्ञानसे, अंतरवाह्य मंथनसे, प्रयोगोंसे प्रसन्न कर लेना पड़ता है। उस सुखानुभव में प्रसन्न मनसे विचरण करना कुशल शिवशरणोंके अतिरिक्त और कौन जानता है महायनदोड्डदेशिकार्य गुरुप्रभु। (३८५) शरीरसे कर्म, भावसे लिंग देखकर, लिंगसे स्वानुभव करनेपर अंगके संगसे परे गया कंदवलिंग जाननेसे । टिप्पणी:-अंगके संगसे परे जाना शरीर, गुणके परे जाकर आत्मगुणमें स्थित होना। ..
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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