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________________ २६० वचन - साहित्य - परिचय और ज्ञानका सम्यक् प्रकाश ही लिंगका आधार है । इसलिए ज्ञान क्रियोपचार होना चाहिए ऐसा कहता हूं महालिंगगुरु सिद्धेश्वर प्रभु । . (३७५) कर्मके प्रभावमें बुद्धि हीन होती है । बुद्धिके प्रभावमें ज्ञान होन हो जाता है | ज्ञानके प्रभावमें प्रकाशकी सुषमा गयी । ईशान्यमूर्ति मल्लिकाजुनलिंग ऐसोंसे छिपकर दूर हो जाता है । ( ३७६) जब तक ठंड है उष्णताका प्रतिपादन करना चाहिए, जब उष्णता हुई तब शीतका। सुबह जगने के बाद रातको सोने तक प्रद्वैत अशक्य है इसलिए क्रियाको नहीं भूला । ज्ञान क्या है ? "शून्य है" कहकर उसको नहीं छोड़ा | वह तो पृथ्वी के अंतर्गत छिपी श्राग-सी है । तिलमें छिपा हुआ तेल है । बसवण्णप्रियनागेश्वर लिंगको जानने के लिए इनकी प्रसन्नता चाहिए । टिप्पणी :- यहां ज्ञान और क्रियाका समन्वय कहा गया है । ( ३७७) ज्ञान प्राप्ति हो जानेपर भी कर्म नहीं छोड़ना चाहिए । मधुरमें मधुर मिलाने से क्या माधुर्य में न्यूनता आएगी ? धनमें धन मिलानेसे क्या निर्धनता प्राएगी ? तेरे किये हुए कर्मोंमें शिवपूजाका भाव दृश्य होना चाहिए । वह कलिदेवके मिलनका सौंदर्य है । (३७८) वेदांत के ग्रंथ देखकर ज्ञान लुटानेवाले शैवभक्त क्रियाहीन हुए तो उसमें समरसता नहीं आएगी, क्योंकि उनकी करनी कथनी से मेल नहीं खाएगी और जहां करनी और कथनीका मेल नहीं वहां चन्नसंगमदेव खड़ा नहीं रहेगा सिद्धरामैया | 2 ( ३७९) बहिरंग में न दीखने तक अंतरंगमें ज्ञान होनेसे क्या लाभ ? बिना देह प्राणका क्या श्राधार ? बिना दर्पणके भला अपना प्रतिबिंब कैसे दिखाई देगा ? साकार निराकार एकोदेव है हमारा कूडलसंगमदेव p विवेचन - केवल बौद्धिक ज्ञान निरर्थक है । वह ठोस नहीं होता । ज्ञानके अनुसार कर्म होना चाहिए । ज्ञान और कर्म साधकके लिए दो पंख हैं । आत्मानंदके गगन विहार के लिए इन दोनों पंखोंकी अत्यंत आवश्यकता है । क्रिया ही. ज्ञानका आधार है | ज्ञानियोंके लिए भी कर्म करते रहना आवश्यक है । अन्यथा वह ज्ञानहीन हो जाता है । साम्यभावका विकास नहीं होगा । क्रिया और ज्ञानसे अंतरबाह्यका एकाकार कर परमात्माका साक्षात्कार करना सर्वश्रेष्ट मार्ग है । तत्वत: ज्ञान और कर्म एक है । एकका त्याग करके दूसरेको स्वीकार करना अपने अज्ञानका प्रदर्शन करना है । 7 : वचन --- ( ३८०) अंतरंगका ज्ञान श्रीर बहिरंगका कर्म यह उभय संपुट एक होने से शररणोंका तन- मालिन्य और मन-मालिन्य मिटता है । कडल चन्न संगैयमें हमारे सब इंद्रिय संग हुए ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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