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________________ २५८ . वचन-साहित्य-परिचय .. प्रसूति करना आश्चर्य नहीं है क्या ? नाक पकड़कर मोक्ष पानेवालोंको मैं क्या कहूं कूडलसंगमदेवा। (३६२) भगवानके स्मरणसे ही मुक्ति पानेवाले युक्तिशून्योंकी बातें सुनी नहीं जाती। क्योंकि भगवान क्या दूर है जो उसका स्मरण किया जाय ? दूर बसने वालोंका स्मरण किया जाता है यह जानकर तुझमें जा छिपा मैं महालिंग गजेश्वरा तेरा स्मरण किया ही नहीं। टिप्पणी:-वचनकारोंका यह स्पष्ट मत है कि ज्ञान, भक्ति, सत्कर्म आदिके प्रभावमें स्मरण, जप, ध्यान, पूजा, आदि हास्यास्पद है । ध्यानके साथ ज्ञानादि हो तो परमात्माका साक्षात्कार हो सकता है। (३६३) सुन्दर वर्ण न हो तो भला सोनेको सुवर्ण कौन कहेगा ? जहाँ कुसुमकलि खिलकर महकती है वहाँ भला सुगंध क्यों नहीं होगी ? अरे किया शुद्धिके साथ ही कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुन लिंगकी भावशुद्धि होती है । (३६४) भूमिकी कृषि शुद्ध होनेके पहले भला खेतीका पौदा कैसे शुद्ध होगा ? मूर्तिके ध्यानसे अर्चना अर्पित करनेसे पहले वह अर्चना शुद्ध नहीं होती ! ईशान्य मूति मल्लिकार्जुनलिंगको जाननेके लिए यह निश्चित रूपसे आवश्यक है। (३६५) जिसकी क्रिया शुद्ध हुई है उसकी भाव-शुद्धि हुई, जिसकी भावशुद्धि हुई है उसकी आत्म-शुद्धि भी हुई। जिसकी आत्म-शुद्धि हुई हैं उसका अहम् नष्ट हुआ और सामने आकर खड़ा हुआ सत्य ही प्राण लिंगका संबंध है निष्कलंक मल्लिकार्जुना। __ (३६६) भक्ति क्या शब्द सुमन माला है ? कर्मोंसे तन मन धन गलानेसे पहले क्या भक्ति मिलती है ? कडलसंगमदेव प्रसन्न हुझा तो. आनन्दसे विनोद करेगा। सहन करनेसे पहले क्या भक्ति मिलेगी ? (३६७) कर्मरहित भक्त मनुष्य है, कर्मरहित शैव-संन्यासी राक्षस है, क्रियारहित प्रसादि यवन और क्रियारहित प्राण लिंगी भवी । क्रियारहित शिव-शरण अज्ञानी है तो क्रिया रहित लिंगैक्य पुनर्जन्मके है कूडलसंगमदेवा । विवेचन-जैसे अपने सुन्दर वर्णके कारण ही सोनेको सुवर्ण कहते हैं वैसे ही क्रिया शुद्धिके कारण साधक साधु कहलाता है। यदि साधककी क्रियाएँ शुद्ध नहीं होंगी तो उसके भाव शुद्ध नहीं होंगे और वह भक्त भी नहीं बन सकेगा। क्रिया शुद्धिके बिना भाव शुद्धि असंभव है। भाव शुद्धिसे ही आत्मशुद्धि होगी और अत्मशुद्धिसे सत्य ज्ञान चमकेगा। इसलिए सर्वप्रथम परमात्माक कार्यमें अपना तन मन धन गलाना चाहिए। तभी सच्ची भक्ति स्थिर होगी। कर्मरहित भक्त, ज्ञानी, ध्यानी, कभी पूर्ण मुक्तिके अधिकारी नहीं होंगे। कर्म,
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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