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________________ २५६ वचन-साहित्य-परिचय देगी । इन सब शक्तियोंके समुचित समन्वय द्वारा ही मानवी जीवनका सर्वांगीण विकास होगा। इन चारों शक्तियोंके समन्वयके विषयमें कहते समय ऐसा कहा जा सकता है कि सत्य-ज्ञान अथवा आत्मज्ञानके प्रभावमें सत्य-भक्ति अथवा आत्म-भक्ति असंभव है तथा निष्काम कर्म भी असंभव है। आत्म-भक्तिके अभावमें आत्मज्ञान शुष्क होगा, वह सरस और रम्य नहीं होगा तथा उसके अभावमें कर्मका परमात्मार्पण भी संभव नहीं। क्रियाके अभावमें ज्ञान और भक्तिकी परीक्षा नहीं होगी। उसको कसौटी पर कसकर देखनेका अवसर नहीं पाएगा। वह जीवनव्यापी नहीं होगा। ध्यान शक्तिके अभावमें इनमेंसे किसीको स्थिरता प्राप्त नहीं होगी तथा इन तीनोंके विना ध्यान अर्थशून्य हो जाएगा। यही बात और एक प्रकारसे कही जा सकती है। ज्ञानरहित भाव अंधा है, भावरहित ज्ञान नीरस और लंगड़ा है, क्रिया-रहित ज्ञान और भाव अव्यक्त ही रहेंगे। ध्यान, ज्ञान, भाव, और क्रियाका मार्गदर्शक है । भाव, ज्ञान और कर्मको सरस बनानेवाला है, इसलिए ,जीवनदायी है । क्रिया, ज्ञान और भावको व्यक्त रूप देकर जीवन-व्यवहारमें उनकी परीक्षाका अवसर देती है। ध्यानमें उन सबको स्थिर बनानेकी शक्ति है । ज्ञान, साधना-शरीरकी दृष्टि है तो भावना प्राण है, कर्म कर्तृत्वशाली हाथ हैं और व्यान आधारभूत पैर ! साधकका समग्र साधना जीवन ध्यानके आधार पर ही खड़ा है । वचनकारोंने बुद्धि; भाव, क्रिया और ध्यानमें जो निकट संबंध है उसको भली भांति समझाया है। इन सब शक्तियोंका समुचित समन्वय ही सर्वसमन्वय मार्गकी प्रात्मा है। यही पूर्णयोग है, यही शरणमार्ग है। अब इन्ही बातोंको वचनकारोंके अनुभवपूर्ण शब्दोंमें देखें। वचन-(३५४) जल, फल, पत्र, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आदिसे पूजा करके थक गए, किंतु जिसकी पूजा करते हैं वह क्या है कैसा है, यह कुछ भी नहीं जानते । कहते हैं न "जनको देखकर जग नाचता है" उस भावसे पूजा करते-करते कुछ भी न पाकर नष्ट हो गए गुहेश्वरा । टिप्पणी:-मूल वचनमें "जनको देखकर जग नाचता है" इस अर्थमें "जन मरुलो जात्रे मरुलो" यह लोकोक्ति आई है। उसका शब्दशा: अर्थ है "व्यक्ति पागल है या दुनिया ही पागल है" अर्थात् एकसे एक पागल हैं इस अर्थ में उस लोकोक्तिका प्रयोग होता है। (३५५) पेटपर भोजन और पाथेयकी पोटली वांध देनेसे क्या भूख मिटेगी ? अंग-अंगपर लिंग वांव देनेसे क्या वह प्रात्मलिंग होगा ? वृक्ष लताओं पर रखा हुप्रा पत्थर मिला तो क्या वह लिंग बनने वाला है ? उससे क्या वह
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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