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________________ २३६ वचन-साहित्य-परिचय पड़ा है उसे छोड़कर चावलकी सड़ी मांड मांगते हुए धूमनेवाले भ्रमित मूर्ख मानव ! तू सुन परमपद देनेवाला चन्न सोड्डलिंग है; ऐसा दूसरा देवता तुझे कहाँ मिलेगा? (२७०) मुझे एक लिंग, तुझे एक लिंग और घरमें एक लिंग हुआ । सारी भक्ति पानीमें डूब गई। तनका लिंग मनको स्पर्श करेगा क्या गुहेश्वरा ? (२७१) एक जन्म तुझे पत्थरका भगवान बनाकर पूजा की। और जंगम जोगी, शैव-भिक्षुक बनकर पैदा हुआ। एक जन्ममें लकड़ीका भगवान बनाकर तेरी पूजा की और बढ़ई बनकर पैदा हुआ।......."इन सबको 'तू' कहकर पूजा की और बार-बार इस संसारमें आया। इस प्रकारका जड़रुप तू नहीं है । तू स्थिर है, शुद्ध है, निःशून्य है, निराकार है, ऐसा जानकर, जो अपने हाथमें बंधा हुआ है, उसकी प्रतीतिकर सब कुलोंके बाहर जाकर, कुलहीन कहलाता हुआ मैं किस जन्ममें गया यह मैं स्वयं नहीं जानता काडिनोलगाद शंकर प्रिय चन्न कदंब लिंग निर्माण प्रभु। (२७२) जव देह ही देवालय है तब भला दूसरे-तीसरे देवालयकी क्या आवश्यकता है ? जब प्राण ही लिंग है तव दूसरे-तीसरे लिंग की क्या आवश्यकता है ? न कहा है न सुना है कि तू पत्थर हुआ तो गुहेश्वरा मैं क्या हूँ ? (२७३) पेटमें प्राग है और पेट नहीं जलता इसका रहस्य भला कौन जानता है ? और उस पागके पानी में न बूझनेका रहस्य ? शिवजी ! तूने प्रारण और प्रकृतिमें जो रहस्य छिपा रखा है वह जड़ लोग कैसे जानेंगे रामनाथा । विवेचन--प्रतीक केवल प्रतीक ही है उसका कोई खास महत्त्व नहीं है । उस प्रतीकको ही भगवान मानना मुर्खता है। पत्थर, मिट्टी, लकड़ी, आग, आदि भगवान नहीं है । भगवान चैतन्य-स्वरूप है। वह निराकार है। यह मादर वह मंदिर, मेरा भगवन तेरा भगवान इनसे झगड़े ही बढ़ते हैं। सच्ची भक्ति और सच्चे अध्यात्मका विकास नहीं होता है। हमारी देह ही मन्दिर है । आत्मा हा परमात्मा है। उसे हमें शुद्ध रखना है। निर्दोष और निष्पाप रहना है । तब सर्वत्र वह परमात्मा क्या है ऐसा बोध होगा। इसलिये विशुद्ध भक्ति आवश्यक है। वचन-(२७४) भक्ति मुक्तिको कौन जानता है ? कोई जानता है यह मैं नहीं जानता । अपनेको भूलकर खोलकर सामने रखनेवाला ही भक्त है। एस शिव-भक्तसे ही शिव प्रसन्न होता है । वातोंमें भक्ति भरी हुई और कृतिम १९ नहीं, तो वह हीनता है। उससे शिवके प्रसन्न होनेकी बात असत्य है । अपनेको भूलकर, क्रोधादिको वुझाकर, प्रणाम करता हूँ निजगुरु स्वतंत्र सिद्धेश्वर लिगको। (२७५) अहंकारसे की जानेवाली भक्ति संपत्तिका संहार है। आचरण Anima
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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