SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना मार्ग - भक्ति योग २३५ विवेचन - कोई भी एक लंबा रास्ता पकड़कर भगवानको खोजते हुए भटकने से अच्छा है उत्कट प्रेमसे, संपूर्ण रुपसे उनकी शरण जाना, क्योंकि परमात्मा भक्तिप्रिय है । जो प्रेमसे भगवानको खोजने जाता है उसे ही खोजता हुग्रा भगवान उनके पास आता है । क्योंकि वह भक्ति- लंपट है। भक्तों पर आसक्त है । श्रर्थात् हमें उसकी शरण जाना चाहिए। वह शरणोंके पास आएगा ही । निर्मल भक्ति भाव देखकर वह प्रसन्न होता है इसलिए भक्ति मार्ग सर्वोत्तम है । प्रतीकोंके विषय में वचनकारोंका निम्न मत स्पष्ट है । वचन - ( २६५) सृष्टिसे उत्पन्न शिलाखंड, शिल्पकारसे उत्पन्न मूर्ति मंत्रका अंग कैसी हुई ? इन तीनोंसे उत्पन्न पुत्रको 'लिंग' कहकर प्रणाम करना व्रतहीनता है गुहेश्वरा ! टिप्पणी : - सच्चा लिंग शुद्ध चैतन्यस्वरूप है । शिला- लिंग प्रतीक मात्र है । इस प्रतीकको ही परमात्मा कहनेवालोंको प्रभुदेवने उपरोक्त शब्दोंसे फटकारा है । (२६६) पत्थर को भगवान कहकर पूजते हैं, कैसी मूर्खता है यह ? यह तो कल पैदा होने वाले बच्चेको ग्राज दूध पिलाने जैसा है गुहेश्वरा । टिप्पणी :- पत्थर भगवान नहीं है। सर्वत्र चैतन्य की प्रतीति होकर, भक्तको जव साक्षात्कार होगा तब पुत्र जन्मसा श्रानंद होगा । अर्थात् पत्थर केवल प्रतीक है, भगवान नहीं है । ( २६७ ) आग़को भगवान मानकर उसमें हवन करनेवाले अग्निहोत्री ब्राह्मणों के घरमें जव ग्राग लगती है तो वह चीखते-चिल्लाते हुए मुहल्ले भरके लोगों को जमाकर उसपर पानी श्रोर धूल डालते हुए नाचते हैं। कूडलसंगमदेवा वंदन करना छोड़कर निंदा करते हैं न उस अग्नि भगवानकी । (२६८) मारी' की पूजा करने वाले श्मशानमें जाकर बकरा काटनेवाले क्रूर - कर्मियोंको भला कैसे शिव-भक्त कहा जाए ? ऐसे घरमें खाने वाले घोर नरकमें उतरेंगे रामनाथा । (२६६) गंगा जलमें स्नान करके भला कीचड़ में क्यों पड़ें ? घरमें पड़ा हुआ चंदन छोड़कर भला दुर्गन्ध क्यों बदनमें मलें ? घरमें काम-धेनु दुह रही है उसे छोड़कर कुतियाके दूधके लिए भटकें ? मन चाहा अमृत जब तेरे सामने १. मृत्यु देवताका एक वीभत्स रुप | कर्नाटक में इसे मारियम्मा कहते हैं और बकरे भैसा मारते हैं ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy