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________________ साधना मार्ग--ज्ञानयोग २२६ करके देखा तो ब्रह्मका है। "मैं कहता हूँ" कहनेवाली शक्ति ही चैतन्य है। "मैंने जाना" कहता है वह ज्ञान । “मैं” कहते ही वह ज्ञान आगे रखकर देखता है। दीखनेवाली आनंद मूर्ति "मैं" कहते ही वह साक्षी रूप होकर देखता है । साक्षीको जानकर न जाने हुए शून्यकासा हुआ हमारा कपिलसिद्धमल्लिकार्जुन 'पिता। (२४०) काममें रहा तो कर्मकांडी, सब कर्मोंको ईश्वरार्पण किया तो भक्तिकांडी, सब कर्मोका साक्षी रहा तो ज्ञानकांडी, इस कांडत्रयसे जो अखंड है उसे दिखादो कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुन। टिप्पणी :-वचनकारोंका कहना है देह, जीव, बुद्धि, धन, इन सबसे परे अखंड आत्मवस्तु है, उसको जानना ही पूर्ण ज्ञान हैं । "मैं सर्वसाक्षी हूँ" इसका अनुभव ही अंतिम ज्ञान है । वह जानकर भी शून्याकार है अर्थात् जानते हुए न जानने जैसा है। इसका अर्थ "अवर्णनीय" है । इसलिए वह कांडत्रयसे परे है। __ (२४१) आधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा-रूपी षड्चक्रमें दलवर्ण, अक्षर, अधिदेवता शक्ति, भक्ति, सादाख्योंके देवता हैं; कहते हैं ऐसा नहीं; वाचातीत, मनातीत, वर्णातीत, अक्षरातीत पर-शिवतत्त्व आप ही ऐसा जाना तो अपने श्राप शून्य है देख अप्रमारणकूडलसंगमदेव। . (२४२) अक्षरोंका अभ्यास करनेसे भला भवपाशसे कैसे मुक्त होंगे ? स्वरूप कौनसा है, निरूप-अरूप कौनसा है यह जानकर उत्त्पत्ति स्थितिलयादिके परे जाकर देख गुहेश्वरा। (२४३) पत्थरका परमात्मा परमात्मा नहीं ; मिट्टीका परमात्मा परमात्मा नहीं, वृक्ष परमात्मा परमात्मा नहीं, ये पंच लोहसे बनाये जाने वाली मूर्तिपरमात्मा परमात्मा नहीं, सेतुबंध, रामेश्वर, गोकर्ण, काशी, केदारादि अष्ठाषष्ठ पुण्य-तीर्थोंमें बसे परमात्मा परमात्मा नहीं, किंतु अपने आपको जानकरके देखा तो आप ही परमात्मा है अप्रमारणकूडलसंगमदेव।। (२४४) अपनेमें आपको जानकर, अपने अज्ञान, आशा-आकांक्षाओंके पाश, अनाचार, भसत्य वचनोंको त्यागकर, अपने दुर्गुणोंको धोकर, सत्यमें स्थित रहें तो हम स्वयं मायातीत हैं, हम ही सगुण-निर्गुणके आधारभूत चैतन्य' हैं अप्रमाणकूडल संगमदेव । टिप्पणी :-वचनकारोंने बारबार कहा है कि परमात्मा शुद्ध चैतन्यस्वरूप हैं । यदि कहीं वह प्रत्यक्ष हो सकते हैं तो वह अपने ही हृदयमें प्रत्यक्ष हो सकते हैं । ऊपरके दो वचन इन्हीं वचनोंमेंसे हैं। (२४५) कहते हैं शरीर छोड़कर कैलास जाते हैं, यह ठीक नहीं है।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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