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________________ २२८ वचन - साहित्य - परिचय हुए ज्ञानमें लिंगकी सत्यता देख देखा हुआ ज्ञान ही "मैं हूँ" ऐसा बोध होगा । दृश्य और द्रष्टकी अद्वैत स्थितिका भान होना ही तुम्हारा ज्ञान निजगुरु स्वतन्त्र सिद्धलिंगेश्वरा । ( २३३ ) सब कुछ जानकरके क्या लाभ है रे ? अपने आपको जानना छोड़कर ? अपनेमें जब अपना ज्ञान है तब दूसरोंके पास जाकर उनसे पूछने से क्या मिलेगा ? चन्नमल्लिकार्जुना तू ही ज्ञान होकर श्रागे आकर दिखाई देता है, तुझसे ही सब जान लेती हूं प्रभु ! • ( २.३४ ) बोधका अर्थ क्या कान फूंककर मंत्र देनेका बोध है ? नहीं ! नहीं !! बोधका अर्थ तन- मनका साक्षी तू ही परम गति परम-वस्तु है यह जानना ही सच्चा बोध है रे कपिल सिद्ध मल्लिकार्जुन । ( २३५) अपने आपको जाने हुए को वह ज्ञान ही गुरु है । ज्ञानसे अज्ञान नष्ट होता है । अज्ञान नष्ट होकर द्रष्टा दृश्य भेद नष्ट होना ही गुरुत्व है ।. सब कुछ प्राप बननेपर भला छूकर जाननेको और क्या रहा ? श्रात्म स्थिति में मनुष्यके लिए निर्णय निष्पत्ति ही गुरु है । इस भांति अपने आप गुरु होनेपर भी जगणकी भांति गुरु होना चाहिए । टिप्पणी :- " मैं कौन हूं" यह जाननेका ज्ञान ही सबसे श्रेष्ठ ज्ञान है । उसे छोड़करके और सबको जानना व्यर्थ है । अपने आपको जानकर गुरु तो हुआ किन्तु "मैं कौन हूँ ?" इस प्रश्नका उत्तर लीजिए । ( २३६) देह मैं नहीं, जीव मैं नहीं, यह शिवने प्रतीत किया था । जीव-शिवमें कोई भेद नहीं है । जहां पानी है वहां, जैसे ग्राकाशमें रवि, तारिका, मेघादि होते हैं, वैसे पूर्ण वस्तु चिदाकाशमें शिव, जीव, माया, प्रकृति श्रादि होते हैं कपिल सिद्ध मल्लिकार्जुना । ( २३७) एक ही वस्तु अवस्थात्रय में किंचित् ज्ञानसे जीव कहलाया । उस जीवको उसके कर्तृत्व-भोक्तृत्व के प्राधीन होकर यह देह "मैं" कहने लगी । मैं कहने की वासनामें कालत्रयके आधीन यह देह स्वतन्त्र - पराधीन होकर रही यह देख रे कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुना । टिप्पणी :- अवस्थात्रय जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति । (१३८) जाना तो "सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म" ऐसा श्रुति कहती है । यदि भूला तो साक्षात् सच्चिदानंद भाव है ऐसा कैवल्योपनिषद कहता है । ज्ञान वस्तुस्वरूप है और अज्ञान माया स्वरूप अर्थात् मैं निर्वलय निरवय स्वरूप हुआ देख कपिल सिद्धिमल्लिकार्जुन । ( २३९ ) तेरी देह देखी तो पंच भौतिक है, तुझे देखा तो जीवांशिक है, तेरा घन देखा तो वह कुवेरका है, तेरा मन देखा तो वह वायुसे मिला है, और सोचा
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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