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________________ अज्ञान २११ था मुझे । कुतियाके पीछे मरनेवाला कुत्ता अमृतका स्वाद कैसे जानेगा मेरे कडलसंगमदेव। (१६६) युवतियोंकी चरण सेवा करते हुए ब्रह्मकी वातें करनेसे ब्रह्मकी वातें ही रुक जाएंगी अंबिगर चौडया। (१६६५) युवतियोंकी चरणसेवा लेते हुए ब्रह्मकी बातें करनेसे ब्रह्मकी वातें ही रुक जाएंगी अंविगर चौडया। टिप्पणी :-मूल वचनसे ये दोनों अर्थ निकलते थे इसलिये एक ही वचन के दो रूप दिये हैं। (१६७) बड़े-बड़े लोगोंको नरम करता है वह धन, संत महंतोंको धर दवाती है वह दारा, और मैं-मैं कहनेवालोंको झुकाती है वह धरा, धनकी खान देखनेपर कहां रहता है वह बड़प्पन ? कामिनियोंकी कामनाओंमें ही रमते रहते हैं वह संत महंत, मिट्टीकी सुगंध आते ही वह कहां स्थिर रहते हैं ? धन, धरणी और दारा रूपी धूल आंखोंमें झोंककर वह तुम्हारे स्मरण संकल्पका अवसर ही नहीं आने देती है सोड्डलागरलगलघरा। टिप्पणी :-तृष्णा अधिकतर तीन रूपसे मनुष्य पर अपना प्रावरण डालती है । वह तीन रूप हैं स्त्री, धन और भूमि । ऊपरके वचनोंमें उसीका वर्णन किया है। (१६८) यह संसार एक बवंडरका दीपक है और श्री-हाटकी चीज ! उसके भुलावेमें आकर ध्वस्त मत हो बाबा ! उस श्री को भूल कर पूजा करो हमारे कूडलसंगमदेवकी । (१६६) संसार नामके महा अरण्यमें राह भूलकर तड़प रहा हं देख । न दिन है न रात, इस संसारके जंजालमें तड़प रहा हूं। निजगुरु स्वतंत्र सिद्ध लिगेश्वरा न जाने कितने लोग इस संसार नामके महा अरण्यमें फंसकर राह न देखते हुए, तुझे न जानते हुए तड़प-तड़प कर मर गये। टिप्पणी :-इस वचनके अनुवादमें राह शब्द आया है। मूल वचन में "होलबु" शब्द आया है । 'होलबु' इस शब्दके तीन अर्थ होते हैं। राह, रहस्य और पद्धति । (१७०) संसार सागरसे उदित होनेवाला सुख ही दुःख है, यह न जानकर जहां उसी सुखके भुलावेमें भव दुःखके क्रू र जन्म-मरणके चक्रमें पाये वहाँ मैं और मेरा पाहकर खूब इठलाये, जो अपना नहीं था उसको भ्रमसे अपन्त कहा, इस प्रकार भयंकर भव-चनमें प्राबद्ध अज्ञानी जीव भला तुम्हें कैसे जानेगे मेरे प्रिय ईमनिनिष्कलंकमल्लिकार्जुना वह सब । (१७१) पंचेंद्रिय नामके पांच फनवाले महान संसार सर्पके काटनेसे पंच
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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