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________________ २१० • वचन-साहित्य परिचय . धकारमें पड़करके राह भूलकर सीमोल्लंघन करके ध्वस्त हुए गुहेश्वरा। (१५६) “मैं" के अहंकार में जो भोगा वहीं मुझे खाता है ! निंदा स्तुति मुझीया या खिला कि मायाके जाल में फंसा और गुहेश्वर दूर हो गया। टिप्पणी- अहंकार के साथ ही साथ अन्य अनेक प्रकारके तमका प्रावरण पड़ता है यह कहकर श्राशाका रूप दिखाया गया है। :: :: (१६०) अांखोंके सामने भाई कामनाओंको मारकर, मनके सामने आई अाशाको खाकर उसे जान पातुरवरी मारेश्वरा। (१६१) धनको माया कहते हैं, धरित्रीको माया कहते हैं, दाराको माया कहते हैं ; धन माया नहीं है, घारित्री माया नहीं है, दारा माया नहीं है। मनके सामने खड़ी कामना ही माया है रे गुहेश्वरा । (१६२) आशाके शूल पर वेश नामकी लाश विठाऊं तो ऊपर बैठे हुए पुरखे गल गये ; प्राशाको प्रांखोंके सामने रखकर उसके चारों ओर मंडराने का वाले पुरखोंको देखकर गुहेश्वरलिंगको जुगुप्सा हो गयी देख संगनवसवण्णा । टिप्पणी :-विना पिंड तिलोदकके पितरोंकी गति नहीं होती इसलिये वह संतानकी ओर देखते हैं ; (पितरोंके उद्धारके लिये संतानोत्पादन करना अनिवाया। धर्म माना जाता है) यहां इस भावनाका विरोध है। (१६३) काल सर्पको एक ही मंसे रोक सकते हैं, एक ही मंत्रसे उड़ते हुए पंछीको रोक सकते हैं, एक ही मंत्रसे मुंह फैलाकर मानेवाले सिहको । रोक सकते हैं, एक ही मंत्रसे मृत्यु नामकी महाराक्षसीको रोक सकते हैं कि जिसे लोभरूपी भूतने पछाड़ा है उसे किसी मंत्रसे नहीं बचा सकतेः। उस लाम का उपचार है गरीबी ! किंतु क्या करें ? कहें तो नहीं सुनते, समझाय तामना मानते, न शास्त्रको देखते हैं, न भक्तिको अपनाते हैं ऐसे मूर्ख अंधोक आप कर्म-समुद्रमें डूब मरना ही बदा है ऐसा सत्यं कहा है शिवशरणा अंबिगर चौडेय। टिप्पणी:-मायाका मूल है आशा, लोभ, कामना, वासना, इच्छा यह सब पर्यायवाची शब्द हैं। इस प्राशासे मनुष्यका मायाजाल जैसे-जैसे वह बढ़ता है मनुष्य उसमें लिपटता जाता है। (१६४) औरोंकी वस्तुप्रोंकी वासनाका ज्वर चढ़ानेसे तड़पता ही धन धरणी और दाराकी प्राशासे व्याकुल हो कर प्रलाप कर रहा व्याकुलता शांत करके अपनी करुणाका अमृत पिलाते हुए इस ज्वरका कर बसवप्रियकूडलसंगमदेव । (१६५) कांचन नामकी कृतियाके पीछे पडयार मैं तुम्हें भूल गया था। मिय रहता था किंतु तुम्हारी पूजाके लिए समय नहीं मिलता. का.उपशम
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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