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________________ अज्ञान विवेचन-मुक्ति चित्तकी स्थिति है और साक्षात्कार अंत:करणका दिव्य अनुभव, यह वात ऊपरके अध्यायमें कही गयी है। यदि यही बात है तो वह महान् अनुभव सबको क्यों नहीं मिलता ? इस महान् अनुभवकी प्राप्तिमें कौनसी रुकावट है ? उस रुकावटके लक्षण कौनसे हैं ? उस रुकावट से उत्पन्न होनेवाली कठिनाइयां किस प्रकारकी हैं ? उनका स्वरूप क्या है ? इन सब प्रश्नोंका विचार करना आवश्यक है। मुक्ति मानवी चित्तकी नित्य, निरालंब, आनंदमय स्थिति है। मनुष्यके मनमें जो अनित्य, परावलंबी, विषय सुखकी आशा बनी रहती है वह इस नित्य, निरालंब सुखकी विरोधिनी होती है इसलिए यह स्थिति सवको नहीं मिलती और इसी कारण दुःखकी उत्पत्ति भी होती है। कभी-कभी मिलने. वाले अल्प सुखके कारण अतृप्ति बढ़ती है, असंतोष पैदा होता है । इस अतृप्ति, तज्जन्य असंतोष आदिका अंधकार दूर होने तक चित्तमें मुक्तिका प्रकाश नहीं पड़ता। इस प्रकार निरालंब, निर्दोष, नित्य शाश्वत सुख अथवा मुक्त स्थितिका विरोधीभाव मनुष्यके मनमें ही होता है । आत्म सुख नामके शाश्वत सुखकी एक स्थिति है और उसे प्राप्त किया जा सकता है, यह भूल करके, मनुष्य उसका प्रयास न करता हुआ अनित्य विषय सुखके पीछे पड़ता है। इससे, रेशमका कीड़ा जैसे अपने ही जालमें स्वयं फंसकर मर जाता है, तथा उसीमें बंध करके तड़पता कलपता रहता है वैसे ही मनुष्य अपनी ही कामनागों में बंधकरके तड़पता रहता है । यदि वह अपनी इन कामनाओंका त्याग करके नित्य प्रात्म-सुखका शोध करेगा, उसके लिये प्रयत्न करेगा तो मुक्त होगा। अर्थात् मनुष्यको शाश्वत सुखकी प्रतीति नहीं होती इसलिए वह अशाश्वत अर्थात् क्षणिक सुखके पीछे पड़कर दुःखी होता है । तव प्रश्न उठता है ऐसा क्यों ? वचनकार इसका उत्तर देते हैं "अज्ञानके कारण !" उसीको अविद्या, माया, मिथ्याज्ञान, अज्ञान, पूर्णज्ञानका अभाव आदि कहते हैं। आत्यंतिक सत्यका प्रत्यक्ष अनुभव ही साक्षात्कार है । साक्षात्कारसे शाश्वत सुखकी प्राप्ति होती है। सवको उस मत्यका अनुभव नहीं होता, अर्थात् सबको शाश्वत सुखकी प्राप्ति नहीं होती क्योंकि सभी उस सत्यका अनुभव करनेवाले साधक नहीं होते। अधिकतर लोग भौतिक विश्वके विषय सुखको ही अपेक्षा करते हैं। इसके परे क्या है ? इसके मूल में क्या है ? इस
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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