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________________ वचन साहित्य- परिचय १६६. खोज कर दर्शन किया है, (तव ) परंज्योतिका प्रकाश चमक गया । करुणा से बची हूँ | यह भ्रमजाल शून्य हुया । नित्य निरंजन शुद्ध-सिद्ध प्रसिद्ध शांत मल्लिकार्जुन देवकी 1 (१०२) दूध-भातकी मधुरता कह सकते हैं, ब्रह्म भोजका आनन्द कह सकते हैं, किंतु उनके सुख-स्पर्श का स्वानुभव न कहना चाहिए न सुनना चाहिए । श्राकाशके स्पर्श संबंध ग्रनंतर भला कौन-सा उपचार और व्यवहार रहा ? कूडलचन्नसंगैय को जानने के उपरांत जानने के लिये और क्या रहा भला ? टिपणीः - श्राकाशका स्पर्श - सम्बन्ध - चिद्घनका अनुभव । (१०३) ज्ञानकी तृप्ति ही ग्रनुभावका ग्राश्रय है । लिंगके अनुभावसे ही तुम्हें देखा था । तुम्हें देखकर अपने को भूला प्रभो कूडल चन्नसंगम देव । (१०४) "मैं मरा" ऐसा कभी लाश चीखती है ? छिपाकर रखी हुई इच्छा कभी नष्ट होती है ? जामुन लगाकर रखा हुआ दूध कभी पुनः मीठा बन सकता है ? क्या यह बात कभी मानी जा सकती है गुहेश्वरा ? टिप्पणीः - अल्लमप्रभुने अक्कमहादेवी से (बड़ी बहनको कन्नड़ में अक्क कहते हैं तथा अपने से अधिक वयस्क स्त्रीको भी ग्रक्क कहते हैं ।) यह प्रश्न पूछे थे । अक्कमहादेवीने कहा, मुक्त पुरुष संसारमें विचरण करके भी अलिप्त रह सकता है । ( १०५ ) ( अपनी ) कांति से चौदह लोकोंको चमकाने वाला स्वरूप मैंने देखा । यह देखकर आँखों का क्षाम (दुर्भिक्ष ) ग्राज समाप्त हुआ 1 . सब पुरुषोंकी स्त्री होकर राज करनेवाली गुरुदेवीको आज मैंने देखा । मैं जगदादि शक्ति में विलीन होकर बोलनेवाले परमगुरु चन्नमल्लिकार्जुन का स्थान देखकर जी रही हूँ । ( १०६) विश्वसे अभिन्न मंटपके, श्राकाशसे. अभिन्न छतका वैचित्र्य देखा ध्यान विश्रांति में सत्य, सत्य नामका एक दर्शन कर आकाश में उदय होते, हुए गुरु लिंगेश्वरको अपने आप देखा । ( १०७) तुम्हारा दर्शन अनंत सुख है तो तुम्हारा मिलन परमसुख है। ग्राठ करोड़ रोम कूपोंकी आंखें बनाकर देख रहा था कूडल संगम देव । तुम्हें · देखकर मेरे मन में श्रासक्ति पैदा हो गयी, मेरी आँखें अर्धोन्मीलित हो गई थीं । (१०८) वह वस्तु हाथ में लगी जो नहीं देखी थी । अब आनन्द से उससे -खेलता हूँ | ग्रांखें भर भरके देखता हूँ । ग्रपने मनको खेचकर भक्ति करता हूँ कूडलसंगै तेरी | टिप्पणी: -- मनको खेंचकर - मनको इंद्रियासक्त होने न देकर । (१०) स्मरणकी संपत्ति थी वह, मेरे ज्ञानका समूह था वह, अरे ! मेरा
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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