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________________ साक्षात्कार १६५ कान प्रत्यक्ष सुनते हैं वैसे ही शुद्ध अन्तःकरणको उस परम सत्यका प्रत्यक्ष बोध होता है। यह प्रतीति स्फुरणात्मक होती है, इसलिये वह केवल तर्कप्रधान वुद्धिको अगम्य, और शब्दातीत रहती है। यह प्रतीति जिसके हृदय में सदैवके लिये स्थिर हो जाती है वह पूर्ण साक्षात्कारी कहलाता है और वही 'पूर्णानंद साम्राज्यका स्वामी बन जाता है । ... मनुष्यको साक्षात्कारसे अपना और परमात्माका संबंध क्या है इसका बोध हो जाता है । उसके अहंकार आदि संकुचित भाव नष्ट होजाते हैं । अहंकारसे उत्पन्न होनेवाले सब प्रकार के सुख-दुःख नष्ट होते हैं और जहां कहीं अानन्द है उसका वह स्वामी बन जाता है । ___ साक्षात्कार दो प्रकारका हो सकता है। एक नित्य और दूसरा अनित्य । कभी-कभी अाकाशमें क्षणभर चमकनेवाली विद्युत्की तरह “यही सत्य है" ऐसा जो क्षणिक अनुभव आता है वह अनित्य साक्षात्कार कहलाता है और वही विद्युत् सूर्य की तरह नित्य हो जाती है, निश्चल रूपसे रहती है तब नित्य साक्षात्कार कहलाता है। अनित्य साक्षात्कारसे मनमें छिपे हुए संशय सव नष्ट हो जाते हैं । 'यही सत्य है' ऐसा विश्वास दृढ़ हो जाता है । और साधक उस साक्षात्कारको नित्य करनेका प्रयास करने लगता है नित्य साक्षात्कारसे साधक कृतकृत्य हो जाता है। प्रानन्द-विभोर हो करके द्वंद्वातीत स्थिति में रहने लगता है। . अब हम साक्षात्कारके विषय में वचनकारोंके अनुभवपूर्ण वचनोंको देखें । वचन-(88) अनंतकाल तक गिरि-गुहादि स्थान पर जाकर तप करने वाला एक दिन गुरुकी चरण-सेवा करे तो क्या कम होगा? अनन्तकाल तक गुरुपूजा करने वाला यदि एक दिन लिंग-पूजा करे तो क्या नहीं चलेगा? और अनन्तकाल तक जंगम-तृप्ति करने वालेको क्या क्षण भर शिव-शरणोंका अनुभव पर्याप्त नहीं होगा कूडल चन्न संगम देव । टिप्पणी:-- इसमें साधन सोपान दिखाया है । वचनकारोंकी दृष्टिसे तप, गुरुपूजा, जंगमपूजा, और अनुभाव उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं ।। (१००) अनुभाव रहित भक्ति ज्ञान नहीं देती, अनुभाव रहित संग समरस मुख नहीं पहुँचाता, अनुभाव रहित प्रसाद शांति नहीं दे सकता। अनुभावके विना और कुछ नहीं जानना चाहिये । अपने में निहित होने पर क्या "शिवशारणोंका संग ही क्यों ?" ऐसा कहा जा सकता है क्या कूडल संगम देवा ? म्हारा अनुभाव शब्दोंका मंथन कहा जा सकता है ? (१०१) मेरी तम-रूपी संसार-बंधनकी आशा टूट चुकी थी। खोज
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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