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________________ वचन-साहित्य का साहित्यिक परिचय सहायता भी मिलती है । फिर भी, इन भाष्यों और टीकाओंको वचन-साहित्य नहीं कहा जा सकता। वचन-साहित्यमें अध्यात्म, धर्म, दर्शन, नीति, समाज-शास्त्र आदिके । सांगोपांग विचार मिलते हैं । किसी महलके बनानेमें चूना, सीमेंट गारा आदि, का जो महत्वपूर्ण स्थान है वही मानवीय जीवनमें धार्मिक तथा आध्यात्मिक विचारोंका है । भौतिक संपन्नताकी चरम सीमापर पहुंचने पर भी मनुष्यके मन, बुद्धि तथा अंतःकरणके विकासके लिए धार्मिक तथा प्राध्यात्मिक विचारों की आवश्यकता है । धार्मिक तथा आध्यात्मिक साधना ही मनुष्यकी प्रसन्नताका मूल है । उसीसे मनुष्यका अंतर-वाह्य जीवन खिलता है। जैसे एक धागा विखरी हुई मणियोंको पिरो देता है, भिन्न-भिन्न रंगरूपके फूलोंका हार गूंथता है, वैसे आध्यात्मिक विचार विश्वके मानव-कुलको उच्च ध्येयसे अभिमंत्रित करके सामूहिक विकासके लिए पथ-प्रदर्शन कर सकता है । वही भिन्न-भिन्न देश, राष्ट्रीयता, भाषा, संस्कृति, परंपरा, विचार, चाल-चलन आदिसे विखरे हुए मानव-समूहको विश्व-बंधुत्व के एक सूत्रमें पिरो सकता है । वचनकारोंने यही प्रयास किया है। वचन-साहित्य इसी ओर संकेत करता है । बचन साहित्य केवल वीरशैवोंका उपासना-साहित्य नहीं है। वह सब धर्मवालोंके लिए है। मानव मात्रके लिए है। यही वचन-साहित्यकी विशेषता है । यही उसकी गुरुता और महानता है। वचनकारोंने अपने साहित्यके द्वारा मानवमात्रको उस महान् अादर्शकी ओर संकेत किया है जिससे मानव महान् बनता है, जिससे नर नारायण बनता है । वचन-साहित्यमें केवल इस ओर संकेत ही नहीं, किंतु इस ओर जानेकी प्रेरणा भी है, उसका मार्ग भी बताया है, उस मार्गके धोखे भी बताये हैं। यही वचन-साहित्यका महत्व है। इसके अतिरिक्त उसमें वीरशैव संप्रदायके शक्ति-विशिष्टाद्वैत, पट्स्थल, अंगलिंग-संबंध, लिंगधारणादि अंटावरण आदि विशिष्ट उपासनात्मक बातें भी हैं। वीरशैव उपासना पद्धतिको जानने के लिए बचन-साहित्य ही पर्याप्त है । उसको पढ़ लेनेके उपरांत इस विषयको जाननेके लिए और कुछ पढ़ना शेष नहीं रहता । साथ-साथ, मानव-मात्रका प्रात्यंतिक ध्येय, उसके साधना-मार्ग, उसके लिए आवश्यक गुणशील कर्म, नैतिक नियम ग्रादिके लिए भी वचन-साहित्य अत्यंत चित्तवेधक, चिंतनीय और मननीय है। नक्षेपमें, बचन साहित्य के विस्तार और विषयका विवेचन करने के पश्चात् उसकी शैलीका विचार करें। किसी भी साहित्यको शैली अथवा रचना-पद्धति के दो अंग होते हैं। एक बाहाम्प तथा दूसरा प्रांतरिक रूप। इसके बाह्य रुपका विचार करते समय, चनों के प्रमाग, उनमें पायी जानेवाली पद्यात्मकता,
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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