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________________ वचन-साहित्य-परिचय नहीं थी । प्रकाशन संस्थाएं नहीं थी। साहित्य सर्व-सुलभ नहीं था । ऐसी स्थितिमें भी अधिकतर परंपरासे इस महान साहित्यकी रक्षा की गयी है। यह तो जैसे वीरशैव समाजकी, संतों और साधकोंकी ज्वलंत एक-निष्ठाका प्रमाण है वैसे ही वचन-साहित्यके संशयातीत महत्वका भी। वचन-साहित्यके विस्तार के विषय में अविकार से कुछ कहना असंभव है। अवतक अनेक वचन प्राप्त हए हैं, जो प्राप्त हए हैं वे मुद्रित होकर प्रकाशित भी हो चुके हैं । किंतु अनेक पोथियां मिल भी रही हैं। इसके अतिरिक्त आज कई वचन ऐसे मिले हैं जिनके वचन कारोंका पता नहीं मिलता, कुछ वचनकारोंका नाम मिलता है किंतु उनके वचनोंका पता नहीं चलता। इसका , यही अर्थ है कि अब तक यह अनुसंधानका विषय है। इस विषयमें जितना अनुसंधान हुआ है वह अपर्याप्त है । पर्याप्त अनुसंधानकी आवश्यकता है । जबतक यह कार्य पूर्णतः सम्पन्न नहीं होता तबतक वचन साहित्यके विस्तारके विपयमें अधिकारसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता। किंतु वचनोंके वारेमें कुछ परंपरागत मान्यताएं हैं। उनके विस्तारके विषयमें ऐसी श्रद्धा है कि वे करोड़ोंकी संख्यामें । इसके लिए कुछ श्राधार भी हैं। वचनकारोंमें सिद्धरामैया नामका एक वचनकार है। वचनकारों में उसका महत्वपूर्ण और विशिष्ट स्थान है। विशिष्ट इसलिए कि वही एक वचनकार ऐसा है जिसके वचनोंमेंसे कुछ ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है। कुछ वचनकारोंके जीवनकी घटनाओं का उल्लेख मिलता है, वचनकारों के नाम मिलते हैं। सिद्धरामैया ने अपने एक वचनमें वचनों के विस्तारके विपयमें कहा है कि अल्लमप्रभु और उनके पाठ साथियोंके ही वचन १,६३,११,३०,३०० हैं। आज जो वचन मिले हैं उनके अक्षर भी गिनें तो भी इतने नहीं होंगे : अवतक २१३ वचनकारों के वचन मिले हैं ! अवतक जो वचन मिले हैं वे लाख तक भी नहीं पहुंचे हैं, उनकी संख्या हजारोंमें ही है । जहां प्राप्त वचनोंकी संख्या लाखको भी नहीं छूती, करोड़ों की बात लिखना और कहना शोभा नहीं देता। फिर भी एक संतका वचन झूठ है, ऐसा कहने का साहस कैसे करें ? हो सकता है इन आठ नौ सौ वर्षोंमें अनेक ग्रंथ नष्ट हो गये हों। भारतके इतिहास में बड़े-बड़े पुस्तकालय तथा ग्रंथोंको नष्ट करने की घटनाएं कुछ कम नहीं हुई हैं। किंतु प्राप्त वचन भी अपने विस्तार की दृष्टि से कन्नड़ साहित्य में अपना एक विशिष्ट और स्वतंत्र स्थान वना लेने के लिए पर्याप्त हैं। साथ-साथ इन वचनोंपर लिखे गये भाष्य और टीकाएं भी कम नहीं हैं।. उन भाष्यों और टीकाओंकी परंपरा भी बड़ी प्राचीन हैं । उनका विस्तार भी पर्याप्त है। गूढ़ वचनों का रहस्य जानने में इन भाष्यों और टीकाोंसे पर्याप्त
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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