SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ " सृष्टि १७३ विश्वातीत भी है । वह अव्यक्त रूपसे सर्वत्र विराजमान है । वह केवल चैतन्य रूप है । वह सचराचर वस्तुमात्रका कारण रूप है फिर भी सबसे अलिप्त है । गम्य है । इसलिये वह सब कुछ करके भी न करने वालेका-सा रहता है ।" वह निरंहकारी, निरपेक्ष, निर्लिप्त है इसलिये सबमें व्याप्त रहकर भी सबसे तीत भी है। वचन-- (२४) जहाँ कहीं देखता हूं तू ही तू है प्रभो ! इस सारे विस्तारका रूप तू ही है । तू ही विश्वतोचक्षु है, तू ही विश्वतोमुख है, तू ही विश्वतोवा है, तू ही विश्वतोपाद है कूडल संगम देव । (२५) यह पृथ्वी तुम्हारा दिया हुआ दान है, इसमें से उत्पन्न होनेवाला धन-धान्यादि तुम्हारा दिया हुआ दान है, सर्वत्र संय- संय करके चलनेवाली हवा तुम्हारा दिया हुया दान है, तुम्हारे दिये गये दान पर जीकर प्रोरोंका यशोगान करनेवाले कुत्तों को मैं क्या कहूँ रामनाथ ? (२६) इस तरह बसी हुई इस भूमि, फैले हुए आकाश, कल्लोल करते -- वाले सप्त सागर आदि में सर्वत्र समाये हुए अचित्यको कौन जानता है भला रामनाथ ? . (२७) से भी अणु, महानसे भी महान, अनगिनत असंख्येय, ब्रह्म-की समानता भला कौन करेगा ? अगणित, अक्षय, सर्व - जीवमनः प्रेरक सर्वज्ञ, एको देव, सर्व-संवित्प्रकाश परमेश्वरको मन रूपी दर्पण में, विद्वाकाश रूप हो-कर प्रकाशनेवाले शिवको देखकर उसमें विलीन होनेवाला ही शिवयोगी है |वह जनन-मरण-रहित है । वही सर्वज्ञ है | अधिक क्या कहूँ वह स्वयं निजगुरु सिद्ध लिंगेश्वर है । = टिप्पणीः -- संवित्प्रकाश = ज्ञानका प्रकाश, चैतन्यका प्रकाश, विद्वाकाश = विदुरूप सूक्ष्म प्रकाश, निर्मल आकाश | ( २८ ) किरणों में छिपी धूपकी तरह होगा तुम्हारा निवास, दूधमें छिपे घीकी तरह, चित्रकारके हृदयमें छिपे चित्रकी तरह, शब्दमें समाये अर्थ की तरह, प्रांखोंमें चमकनेवाले तेजकी तरह होगा चन्न संगैया । (२) तुम्हारा ठोर भूमिमें छिपी संपत्ति, ग्रास्मान में छिपी विद्युत्, शून्य में छिपे किरण और ग्राँखों में बसे प्रकाश-सा है गुहेश्वर । (३०) फूल में न समानेसे छलककर बाहर पड़ी सुगंधको लेकर सर-सर सरकनेवाले समीरकी तरह, अमृतके रसास्वादको जिव्हाकी नोकसे जाननेवाले मानव के चैतन्यकी तरह, स्थानविहीन रूप- शिखा के तेज में चमकनेकी तरह रामनाथ ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy