SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ दचन-साहित्य-परिचय (१८) घन गंभीर महासागरमें फेन, तरंग और बुदबुद, यह सब पानीले अलग है क्या ? अात्मरूपी महासागरमें सकल ब्रह्मांडकोटि अलग हो सकती है क्या ? इन सबको अलग-अलग कहने वाले अर्थ-पागलोंको क्या कहें ? 'विश्वको जानकर देखनेसे वह सिम्मुलिगेय चन्नराम लिंगसे अलग नहीं है । (१६) अपने में ही अनंतकोटि ब्रह्मोंकी उत्पत्ति-स्थिति-लयादि है। अपने में ही अनंतकोटि विष्णु प्रादिको उत्पत्ति-स्थिति-लयादि हैं। अपनेमें ही अनंतकोटि देवतानोंकी उत्पत्ति-स्थिति-लयादि है। आपने श्राप स्वयं ही अखंडित अप्रमेय, अगणित, अगम्य, अगोचर है देख अप्रमारा फूडल संगम देव । (२०) तुमने समुद्र पर पृथ्वी रख दी है अडील-सी । बिना नींव प्राधारके अाकाश धर दिया ! अरे शंकार ! विना तेरे और देवतायोंसे यह संभव है क्या रामनाथ ? (२१) तुम्हारे सत्यका अंत जाननेवाला भला कौन है ? चतुर्दश भुवन सब तेरे प्राधीन हैं। तुमसे भी कोई बड़ा है क्या कपिल सिद्ध मल्लिकार्जुन ? विवेचन-अनंत अव्यक्त शयितने अपने मनोरंजनके लिये अपने ही एक अंशसे विविधतापूर्ण विश्वका सृजन किया और वह स्वयं निलिप्त रही । दार्शनिकोंकी दृष्टि से देखा जाय तो यह सारा संसार, चित्ले अभिन्न है जैसे फेन, बुदबुद, तंरग आदि समुद्रसे अभिन्न हैं। किंतु व्यावहारिक दृप्टिसे देखा जाय तो कार्यकर्म न्यायसे यह ष्टि प्रात्माले भिन्न है। केवल यात्मा ही स्वतंत्र है। और जब उसके प्राधीन हैं। सारा विश्व यात्माका प्राविर्भाव है इसलिये "सारा विश्व श्रात्मा है" ऐसा कह सकते हैं क्या ? नहीं ! क्योंकि वह केवल पाविर्भाव ही है। एक अंशमान है और मायासे पावृत है । इसमें भी वह है किंतु यही वह नहीं है । वह इससे परे भी है । वचन--(२२) अद्वैत साधना करनेवाले "सब कुछ गिव है" कहते हैं। ऐसा नहीं कह सकते। सबका लय-गमनादि है किंतु शिवका नहीं है। यंत्रचालक सर्वत्र परिपूर्ण है कहने से क्या सबको परिपूर्ण शिव है काहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता । निजगुरु स्वतंत्र सिद्ध लिगेश्वर जलमें पद्मपत्रकी तरह उसमें डूबकर भी निर्लिप्त है । (२३) पारसकी प्रतिमापर लोहेके श्राभरण कैसे पहनाये जा सकते हैं ? लिंगमें लोक और लोकमें लिंग हो तो अब तकके प्रलय कैसे बने ? और पाने चाले प्रलय क्योंकर होंगे? लोक लोक-सा है और लिंग लिंग-सा है। इन दोनोंका भेद गुहेश्वरा वही जानते हैं जो तेरी शरण पाए हैं। विवेचन-सत्यके अंश मानसे निर्मित यह विश्व विश्वेश्वर नहीं है किन्तु . वह इस विश्वमें सर्वत्र भरा है। वह सर्वव्यापी है। वह विश्व-व्यापी ही नहीं
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy