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________________ तुलनात्मक अध्ययन १४६ बौद्ध, फारसी, यहूदी, इसाई तथा इस्लाम धर्म प्रमुख हैं। इनमें से बौद्ध धर्मका प्रारंभ भारतसे ही हुअा था । किंतु उसका विस्तार भारतसे बाहर अधिक हुआ। इतना ही नहीं भारत के बाहर प्रचलित अन्य सब धर्मों पर बौद्ध धर्मके महायान पंथका गहरा प्रभाव पड़ा है। इसमें संशय नहीं कि बौद्ध धर्म मूलतः तथा तत्वतः ज्ञान-प्रधान धर्म है। किंतु महायान पंथमें वह भक्ति-प्रधान वना है। इसका अर्थ यह नहीं कि महायान पंथमें ज्ञान, कर्म, ध्यान आदिके लिए स्थान. नहीं है। उपनिषद् धर्म भी ज्ञान-प्रधान है ! किंतु उसमेंसे कर्म-प्रधान गीताके भागवत धर्मका प्रादुर्भाव हुया । अष्टांग योगका विवेचन करनेवाले पातंजल योग-सूत्रों का विकास हुआ और भक्तिका रहस्य समझानेवाले नारदीय भक्तिसूत्रका ग्रंथ भी बना। इन सूत्र-ग्रंथोंके कारण उन ग्रंथोंका अनुकरण करनेवाले अनुगम भी बने। अनुगमोंके अनेक साधकोंके चिंतन और प्रयोगके कारण यह भिन्न-भिन्न पंथ स्वतंत्र रूपसे विकसित हुए। पगडंडीका राज-मार्ग बना। अन्य धर्मोंमें अथवा अन्य देशों में ऐसा नहीं हुआ । किंतु उन्होंने भक्तिके साथ अन्य साधनोंका उपयोग कर लिया होगा। ईसा मसीह जंगलोंमें जाकर चालीस दिन तक निराहार होकर ध्यान-मग्न स्थितिमें पड़े रहे थे। उनको वह अप्राकृत आनंद भगवानके अंतर-ध्यानसे ही प्राप्त हुआ था। सेंट ऑगस्टाईनने ध्यानयोग ही कहा है। रूईस ब्रोकनने यह कहकर कर्मयोगका सुंदर विवेचन किया है "सच्चे भक्तका अंतरंग श्रम और विश्राममें समान रूपसे स्वस्थ रहता है । वह तो परमात्माके हाथका सजीव खिलौना बना हुआ रहता है ।" इसाइयोंका सेवा-मार्ग लोक-संग्रहार्थ किया जानेवाला कर्मयोग ही है । बुद्ध भगवानने भी पहले अनेक प्रकारकी साधनाएँ की थीं। उन सब साधनाओंको करते-करते थक कर ब्रह्म-विहार नामकी ध्यान-पद्धतिसे बुद्धत्व प्राप्त किया था। यह पद्धति उनको अलार कालाम नामके ध्यान-योगीने बतायी थी। आधुनिक कालके महान् संत श्री ज्ञानेश्वर स्वयं ज्ञानी थे। वह ध्यानयोगी भी थे। उन्होंने अपने महान् ग्रंथ 'ज्ञानेश्वरी'में ध्यान-योगका अत्यंत गहराईके साथ और विस्तृत वर्णन किया है। ज्ञानेश्वरीके छठवें अध्यायका अध्ययन करने वाला प्रत्येक मनुष्य इस बातको स्वीकार करेगा कि ज्ञानेश्वर ध्यान-योगके अनुभवी थे । एकनाथ महाराजने भी ध्यान, ज्ञान तथा कर्मका समन्वय करनेका प्रयास किया है । उन्होंने समाधिका वर्णन निश्चल, शांत स्थितिके रूपमें नहीं, वरन् सतत कर्मरत साधकके रूपमें किया है। तुकाराम केवल भक्त हैं, किंतु संन्यासी होकर भी रामदास महान् कर्मयोगी थे। उन्होंने कहा है, "जिससे मोक्ष प्राप्ति होती है वही ज्ञान है ।" तथा "व्यवहार दक्ष मनुष्य ही श्रादर्श पुरुष हैं ।" "वह सदा सर्वदा दक्ष रहता है । सावधान रहता है । वह अपने एक क्षरणको भी निरर्थक :
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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