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________________ तुलनात्मक अध्ययन १४५ ...... मैं जो कुछ करता हूँ वह श्री हरिकी सेवा हो।" जगन्नाथ दासने "भक्ति सुख बड़ा है अथवा मुक्ति सुख ?"- ऐसा प्रश्न पूछकर उस प्रश्नका उत्तर देते हुए कहा है, "यह तन तेरा है, मन तेरा है, अनुदिन अनुभव होनेवाला सुखदुख तेरा है। श्रवण, दर्शन, स्पर्श सुख, गंध सब कुछ तेरा है। यह सब तेरे सहारेके विना भला कैसे संभव है ?" यह सर्पिणकी सजीव मूर्ति-सी है। मीरा वाईने कहा है, "राजा रूठे नगरी न राखे अपनी मैं हरि रूठ्या कहां जाना ?" वैसे करीब-करीब उन्हीं शब्दोंमें कनकदासने कहा है, "राजा रूठा . तो हम उसका राज्य छोड़कर जा सकते हैं। भूख लगने पर अन्न भी छोड़ सकते हैं। किंतु तुम्हारे चरण छोड़कर कहां जायं?" यह सब संत-वचन उनके साक्षात्कारकी भूख दिखाने वाले हैं । भक्तिके अष्ट पहलू हीरेकी तरह हैं। भक्ति एक-एक ओरसे एक-एक दर्शन कराती है। किसी भी प्रोरसे देखो एक नया रूप दिखाई देगा, नया रंग दिखाई देगा, नया ढंग दिखाई देगा। कहीं सेव्य-सेवक भाव तो, कहीं माता-पुत्र भाव तो, कहीं सखा-भाव तो कहीं सती-पति भाव । नव विध भक्ति मानो नित्य नये नये भावोंसे पल्लवित होनेवाली भक्ति है। सती-पति भावको भक्ति-साम्राज्य में मधुर-भाव कहते हैं । मधुर भावका एक वैशिष्ट्य है। अनेक भक्त परमात्माको पति-भावसे पूजते हैं। वचनकारोंमेंसे कई वचनकारोंने इस भावसे साधना की है। भक्तिका मूल आधार है प्रेम । प्रेमकमलकी अनंत पंखुड़िया हैं । एकसे एक सजीव । एकसे एक सरस और सुंदर ! बंधु-प्रेम, मित्र-प्रेम, मातृ-प्रेम, पितृ-प्रेम, आप्त-प्रेम, पति-प्रेम, और पत्नी-प्रेम ... . 'यादि । इन सब संबंधों में जो ऐक्य है वही भक्तिका आधार है। सतीपति भाव भी नित्य नव-नव अमियोंसे. खिलता जानेवाला भाव है। उसमें सबसे अधिक समरसैक्यकी संभावना है। इस लिए इस भावका उपयोग कर लेना अपरिहार्य है। किंतु सच्ची भक्तिमें अथवा परमार्थ साधनामें यह एक रूपक मात्र है। कोई कुछ भी क्यों न कहे परमार्थमें सती-पति भाव सर्वोच्च भूमिका नहीं है। वह तो निम्न श्रेणीकी भूमिका है। क्योंकि उसका स्थान अन्नमय अथवा प्राणमय कोशके परेका नहीं है। अधिकसे अधिक खींचा जाय तो भी मनोमय कोशके उस पार यह भूमिका नहीं जा सकती। इतना ही नहीं, मनोमय कोशके गामेको भी नहीं छू सकती । तथा सती-पति मिलनैक्यका आनंद भी विषयानंदमें से एक है । और वह निष्काम भी नहीं है। वह तो सकाम है। अर्थात् यह आनंद परमात्मैक्यकी कल्पना देने तक ही सीमित है । वृहदारण्यक उपनिपमें भी ब्रह्मानंदकी कल्पना देते समय "तद्यथा प्रियया संपरिस्वक्तः" कहा गया है। और प्लॉनिटनस्ने भी "अहा ! समरस आत्मैक्य तो भू-लोकके प्रणयी-प्रणयिनीके परस्पर गाढ़ालिंगन में समरस होनेके समान है !'- कह
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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