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________________ १४४ वचन साहित्य - परिचय का महत्व नहीं था, किंतु भक्तिके वीज अवश्य पड़े थे । गीता में उन वीजोंका विशाल वृक्ष बना हुआ देखा जा सकता है । वस्तुतः गीता में योग समन्वय है । फिर भी भक्तिका बड़ा महत्व गाया गया है । गीताका कर्मयोग भी कोरा - कर्मयोग नहीं है । वह शहद मिले दूध-सा, मिस्री मिले नवनीत-सा, सुगंध मिले - सोने-सा रुचिकर और सुंदर है । गीतामें भगवान श्रीकृष्णने कहा है, कि वेदाभ्यास, ज्ञान, तप श्रादिसे जो साक्षात्कार नहीं होता वह अनन्यभक्तिसे होता है । उसके बाद अनेक भक्तिग्रंथ रचे गये हैं । इसमें भी प्रथम सगुण उपासना ही थी, किंतु श्रागे जाकर श्रवतारकी कल्पनात्रोंसे साकारोपासना हो गयी । - इसमें शैव, वैष्णव और शाक्त मे तीन मुख्य मार्ग हैं | आगम, पुराणादि ग्रंथ भक्ति-प्रधान ग्रंथ हैं | इस प्रकार भक्ति मार्गका विकास हुआ, जो ग्रागे जाकर संतोंका मार्ग वना । 1 इसका विकास केवल भारतमें ही नहीं पश्चिमके देशों में भी हुग्रा है। जीसस क्राइस्ट स्वयं परम भक्त थे । वह कहते थे कि सब भगवानकी संतान हैं । वह भगवानको पितृ रूपसे देखते थे । उनका मार्ग भक्ति मार्ग था । उनके वाद सेंट 'पॉल, सेंट फ्रांसिस, सेंट जेवियर, इग्निशियस, लायोला, सेंट जॉन लॉफ् दि क्रॉस, सेंट कैथारिन आदि सब भक्त थे । इन सवने वैसी ही व्याकुलातिशयसे भक्ति की है जैसे भारतीय संतोंने । पश्चिमके भक्तोंकी तरह एशिया के अन्य देशों के भक्तोंने भी इस मार्गका अवलंबन किया है । सूफियोंने तो भक्तिके मधुर भावको पराकष्ठाको पहुंचाया है। हाफिजने "मेरे मन नामके दर्पणको भक्ति के जलसे स्वच्छ होने दो। उसमें तुम अपना प्रतिविव पड़ने दो । प्रभो ! इस माटी पर अश्रु सिंचन करके इसमें स्थित भाव - सुमन खिलाया है मैंने; इसको स्वीकार करो !" कहा है। भक्तिकी अनन्यता तथा उत्कटता दर्शानेवाले उनके वचन अत्यंत उज्ज्वल हैं। वह कहता है - जिस दिन तेरे दर्शनकी इच्छा उतरेगी, -तेरी प्रतीक्षा करनेसे में उकता जाऊंगा, तुझे छोड़कर अन्योंको चाहने लगूंगा उस दिन से मुझे अंधाकर, मेरी यह ग्रांखें तेरे तेजसे वहीं जल जायं !!” उमर खय्यामने भी ऐसे ही भाव दर्शाये हैं । भारतके ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम, कवीर, नानक, सूर, तुलसी, मीरा, नरसी भगत, धीरा भगत, त्यागराज, पुरंदर- दास आदिने यही कहा है । ज्ञानेश्वरने श्रादर्श भक्तका वर्णन करते समय कहा है, "परम भक्त आत्मज्ञानके पवित्र तीर्थ में स्नान किया हुया होता है ! परमात्मा और उसके वीचका द्वैत नष्ट हुआ रहता है। नवयौवना वधू जैसे अपने यौवनका आनंद स्वयं अनुभव करती है वैसे भक्त परम भावोन्मादके आनंदातिशय में स्वयं आनंदित रहता है। भक्त जो कुछ करता है वह सब परमात्माकी पूजा होती है।” पुरंदेर्दासने भी भगवानसे कहा है, "मेरा सिर प्रभुके चरणोंमें सदा नत
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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