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________________ वचन-साहित्यमें नीति और धर्म ११७ हमारी पुण्यभूमि है ! कर्म-भूमि है ! तपोभूमि है ! वचनकारोंकी यही दृष्टि रही है। "स्त्री एक भोग्य वस्तु है" इस भावनाको वचनकारोंने उखाड़कर फेंक दिया । उन्होंने स्त्रीको मातृ-रूपसे देखनेकी शिक्षा दी । बसवेश्वरने कहा, "नारि अंदरे जगन्माते" "स्त्री तो जगन्माता है ।" वस्तुतः स्त्री शक्ति है । और शक्तिदात्री भी । शक्तिका यह स्वभाव है कि जिस रूप में उसकी पूजा की जाए उस रूप में वह दर्शन और प्रसाद देगी। समाजने उसको अबला, निर्वला, दुर्बलाके रूपमें पूजा। परिणामस्वरूप वह स्वयं निर्बल हुआ । निस्तेज हुआ । अबलाके दूधसे भला बलवान् कैसे बनेगा ? समाजने कामिनीके रूपमें पूजा तो वह कामका कीड़ा बना । स्त्रीके सामने वह निस्तेज बना। यदि वह सतीके रूपमें पूजता तो शक्तिशाली बनता। सत्वशाली बनता। माताके रूपमें पूजता तो मुक्त होता। वचनकारोंने इस तथ्यको जाना । उन्होंने मातृ-दृष्टि से देखनेकी शिक्षा दी । समाजके मुक्त होने का नया रास्ता खोल दिया। इसी मातृ-दृष्टिका विकास करता जाए तो साधकका मुक्ति मार्ग अधिक सरल होगा। सुगम होगा। इसलिए वचनकारोंने नीतिको धर्म-प्राण बना दिया। धर्म केवल व्यक्तिगत मुक्तिका संदेश नहीं देता। वह सामूहिक दृष्टिसे भी विचार करता है । धर्म शब्द 'धृ' धातुसे बना है । 'धृ' का अर्थ है पकड़ना, उठाना, खड़ा करना, पोषण देना । इसी 'धृ' धातुसे 'धृति' शब्द बना है । धृति का अर्थ एक ही स्थितिमें खड़ा रहनेकी शक्ति है । और धैर्य का अर्थ निर्भयतासे रुकावटोंसे संघर्ष करते हुए आगे बढ़ना है। धर्मका अर्थ धारण करना है । धारणाका अर्थ एक ही स्थितिमें खड़ा रहनेका आधार है । 'धीयते अनेन इति' अर्थात् व्यक्ति और समाज जिन नियमोंके पालन करनेसे सुस्थिति में रहेगा, और ऊपर उटेगा वह धर्म है । जिस मार्ग से चलने पर स्थूल दृष्टिसे दिखाई देनेवाले इस विश्वमें तथा अंतःकरणकी स्फूर्त दृष्टिको सूझनेवाली अंतःसृष्टि में अभ्युदय होगा वह धर्म-मार्ग है । अथवा जिससे मानव कुलके अंत्युच्च ध्येयकी प्राप्ति होगी उसमें सहायता होगी वह धर्म है । धर्म कभी एक व्यक्तिकी उन्नतिका साधन नहीं हो सकता। वह तो समग्र मानव कुलके सर्वतोमुखी विकासका साधन है। तथा समग्र मानव कुलको जीवनके उच्चतम और श्रेष्ठतम साध्यको प्राप्त करने में समान अनुकूलता प्राप्त करा देना सच्चे धर्मका लक्षण है । इसमें संशय नहीं कि मोटे तौर पर देखनेसे मनुष्य अकेला जनमता है। अकेला बढ़ता है और अकेला मरता है। उसके जन्म और मरणसे समाजका कोई संबंध नहीं। किंतु वह सामाजिक प्राणी है। जबसे वह जन्म लेता है तबसे अंतिम क्षणतक वह समाजसे सहायता लेता है । उसको समाजका सहारा चाहिए । उसका सहयोग चाहिए। विना समाजके सहारेके, बिना समाजके सहयोगके, विना समाजकी
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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