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________________ वचन-साहित्यका सार-सर्वस्व है । यही भक्तकी अंतिम स्थिति है । वचनकारोंने इसे समरसैक्य कहा है । यही भक्तका शाश्वत सुख है । जैसे भावना-शुद्धिसे भक्त परमात्मैक्य प्राप्त कर सकता है वैसे ही बुद्धिके शुद्धिकरणसे ज्ञानी भी निजैक्य सुख प्राप्त कर सकता है । अपनी निर्मल और कुशाग्र बुद्धि द्वारा ज्ञानमार्गी अपनी पंचेन्द्रियोंसे अनुभूत विश्वका विवेचन-विश्लेषण करके विश्वके मूल तत्वकी खोज करता है । जब . वह उस तत्वको पाता है उसीमें स्थित रहने लगता है । इसके लिए ज्ञानयोगीको सर्वप्रथम अपनी इन्द्रियोंको मनके प्राधीन करना होगा। बाद में इंद्रियोंको कसे हुए मनकी वागडोर वुद्धिके हाथमें सौंपनी होगी। उस बुद्धिको, जिसने मनको अपने आधीन कर लिया है, आत्मामें रत करना होगा। तभी वह सच्चा सत्योपासक हो सकता है। नहीं तो जो बुद्धि इन्द्रियासक्त मनके अधीन है वह इन्द्रियोंके सुखका साधन बनना छोड़कर प्रात्मरत नहीं होगी। इसलिए पहले इन्द्रियोंको मनके आधीन करना चाहिये । मनको बुद्धिके आधीन करना और जिस बुद्धिने सब पर अपना आधिपत्य जमा रखा है उसे आत्मरत करना ही ज्ञानयोगकी प्रक्रिया है । जैसे सधे हुए हाथीसे जंगली हाथी पकड़वाते हैं वैसे ही निराकार आत्मासे, प्राकार निराकारके परे जो परमात्मा है उसको पकड़वाना है । अपनेमें अपनेको प्रत्यक्ष करके वह ज्ञान ही में रत होनेका अद्भुत अनुभव करना ज्ञानयोगकी सिद्धि है । ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेयकी पूर्ण अद्वैतावस्था ही अात्मज्ञान है । इसी प्रात्मज्ञानमें सदा रत रहना ही मुक्ति-सुख है । वही कैवल्य है। यही ज्ञानमार्गीकी ज्ञानानंद प्राप्ति है । यही ज्ञानयोगीकी मुक्तावस्था है। वचनकार इन पांचों मार्गोको अलग-अलग नहीं मानते । अथवा एक दूसरेसे स्वतंत्र भी नहीं मानते । वह तो सब ईश्वरार्पणका परिणाम मानते हैं । उनका दृढ़ विश्वास है कि ईश्वरार्पणसे ही सच्ची सिद्धि मिलती है, अर्थात् सत्यका साक्षात्कार होता है । विना इसके कुछ नहीं होता। वचनकार तो बिना ईश्वरार्पणके अपने-अपने मार्गका आग्रह करनेवालोंकी हंसी उड़ाते हैं। उन्होंने ईश्वरार्पणके विना हठयोगको नटोंका करतव कहा तो भक्तोंसे पूछा, क्या दीपकका स्मरण करनेसे अंधकार मिटेगा ? दाल-रोटीका स्मरण करनेसे क्या भूख मिटेगी ? अप्सराओंका स्मरण करनेसे क्या कामानंद प्राप्त होगा ? और ध्यानयोगीसे 'आंख बंद करके मुक्ति कैसे खोजोगे ?'-अादि प्रश्न पूछे हैं। उन्होंने साधकोंकी हंसी ही नहीं उड़ायी है। इनके हृदयमें प्रामाणिक और कर्मठ साधकोंके लिए अपार करुणा है। उनकी वह करुणा कभी-कभी फूट पड़ती है। वह कहते हैं, अरे रे ! भूखेके अपने पेट पर दाल भात बाँधकर रोनेकीसी हालत हई न इन लोगोंकी ! अरे ! कर्मकी क्रियाको भक्ति अथवा ज्ञानका
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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