SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ वचन-साहित्य-परिचय उनको सुलझाते-सुलझाते वह 'मैं' और 'यह' उसके उस पार जो 'वह' है उसका ध्यान करता है । उसीका ध्यान करते-करते उस ध्यानको धारणामें बदल देता है और धारणा को समाधिमें। यह समाधि दो प्रकारकी होती है। एक सविकल्प समाधि दूसरी निर्विकल्प समाधि । यही निर्विकल्प समाधि ध्यानयोगकी अंतिम अवस्था है। यही उनकी सिद्धावस्था है। यही शाश्वत सुख है यही ब्रह्मानंद है। यही जीवन-मुक्तावस्था है । वचनकारोंकी भाषामें यही शून्यसंपादन है । इसमें ध्याता, ध्यान और ध्येयका अद्वैत हो जाता है । इन तीनोंमेंसे कोई एक नहीं रहता । द्वैत-भाव मिट जाता है । इसलिए वचनकार इसको शून्यसंपादन कहते हैं। ____ यही बात भक्तियोग और ज्ञानयोगकी है। हठयोगीको जैसे शरीरकी अंतर-वाह्य शुद्धि करनी पड़ती है, कर्मयोगीको संकल्प-शुद्धि और ध्यानयोगीको चित्त-शुद्धि करनी पड़ती है वैसे ही भक्तियोगीको भावना और ज्ञानयोगीको बुद्धि शुद्ध करनी पड़ती है। भक्तियोगमें शुद्ध भावनाशक्ति द्वारा ईश्वरसे निरहेतुक प्रीति करनी पड़ती है । निरहेतुक और आत्यंतिक प्रेम द्वारा भावनाओंको शुद्ध करते हुए उन्हें संपन्न और संघटित करके परमात्मामें केन्द्रित करना होता है । इसमें भावना-शुद्धिकी अत्यंत आवश्यकता है । शुद्ध भावनाका अर्थ है निरहेतुक, निष्काम प्रेम । आत्यंतिक प्रीति में तन्मय भक्त क्षण भर भी भगवत्स्मरण नहीं भूल सकता । परमात्माके स्मरणमें उसको निरतिशय आनंद आता है । उस अानंदके सामने भक्तको ब्रह्मानंद भी तुच्छ-सा लगता है । ऐसी हालतमें भक्त क्षण भर भी भगवानका विस्मरण सहन नहीं कर सकता । क्षरण भरके विस्मरणसे वह व्याकुल हो उठता है। मानो मौकी गोदमें बैठकर स्तनपान करनेवाले अबोध बालकके मुंहसे यकायक वह पीयूपभरा स्तन गायब हो गया हो। भक्तके हृदयकी धड़कनके साथ भगवत्स्मरण जुड़ा हुआ रहता है। इस स्मरणमें तन्मय भक्त अपने देहभानको भूल जाता है। देहभानका भूलना ही आत्मभान होना है। सतत भगवद्स्मरण और देहभानके विस्मरणसे उसको परमात्मामें ऐक्यानुभव होने लगता है । वह परमात्मामें लीन हो जाता है । परमात्मामें विलीन होकर, समरस होकर एकरस हो जाता है । परमात्म-रूप हो जाता है । सर्वत्र उसे परमात्माके ही दर्शन होने लगते हैं । तब पूजा, पूज्य और पूजक, यह त्रिकुटी एक हो पाती है । भक्तका हृदय पुकार उठता है-मैं तेरी पूजा करने आया था, किंतु मैं ही तू हो गया तो किसकी पूजा करूं ? तेरी पूजाके लिए हाथमें आरती उठाकर देखता हूं, भारती ही तू हो गया; मैं कैसी आरती करूँ ? तभी महात्मा कबीरदासके शब्दों में कहना हो तो, "कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन खाव-पियौं सो पूजा" हो जाता
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy