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________________ वचन-साहित्य-परिचय हैं । परस्पर सहयोगसे ज्ञानसंग्रह करते हैं । इन पांच इंद्रियों में किसीकी स्पेशेंद्रिय तीन होती है तो किसीकी घ्राणेंद्रिय । किसीकी श्रवणेंद्रिय तीन होती है तो किसीकी रसनेंद्रिय । वैसेही किसीकी क्रियाशक्ति अधिक विकसित होती है तो किसीकी भावना शक्ति । किसीकी प्राणशक्ति अधिक विकसित होती है तो 'किसीकी चिंतनशक्ति । किंतु ये सभी शक्तियां कम-अधिक मात्रामें होती सवमें हैं। इन सब शक्तियोंका श्राश्रय-स्थान प्रात्मा है। जैसे सव ज्ञानेंद्रियोंका समन्वय मन में होता है वैसे ही इन सब शक्तियोंका समन्वय आत्मामें होता है । सामान्य मनुष्य विषय-वासनापोंकी तृप्तिके लिए इन शक्तियोंका उपयोग करता है। विषयवासनाका अर्थ है कि इंद्रिय सुखके लिए मनमें उत्पन्न होनेवाला इंद्रियाश्रित आशा-जाल । इस विषय-वासनासे उत्पन्न होनेवाला सुख क्षणिक है। वह 'परावलंबी है । मायिक है । दोपमिश्रित है । वह निर्दोष सुख नहीं है । यह जानकर मनुष्य निरालंव, निर्दोप, नित्य सुखको प्राप्त करनेके लिए अर्थात् प्रात्म. -सुखको प्राप्त करने के लिए इन पांच शक्तियोंका उपयोग करने लगता है। इस 'प्रकारकी जीवन पद्धतिको योग-मार्ग कहते हैं। भिन्न-भिन्न शक्तियों पर अवलंवित योग मागौंका अथवा वचनकारोंके 'विशिष्ट समर्पणजन्य शरणमार्गका विवेचन करनेके पहले उपरोक्त शक्तियोंके कार्यका विवेचन करना अधिक उपयुक्त होगा । शरीरके सभी वाह्य अवयवोंसे, अर्थात् नखसे शिख तक शरीरके किसी भी भागसे होनेवाले किसी भी प्रकारके चलन-वलन का आधार प्राणशक्ति है । प्राणशक्तिके कारण हमारे शरीरका पोषण और रक्षण होता है । प्राणशक्तिसे ही हमारे शरीरका सब प्रकारका संचालन होता है । प्राणशक्ति ही हमारे शरीर रूपी यंत्रको सजीव रखती है । ‘ऐसे ही हमारे मन और तनसे संकल्पपूर्वक जो कार्य किया जाता है वह क्रियाशक्तिके द्वारा किया जाता है । जिस शक्तिके कारण मनमें संकल्प-विकल्प उठते हैं अथवा अनेक प्रकारकी वृत्तियां उठती हैं उसे चिंतनशक्ति कहते हैं । काम, क्रोध, राग, द्वेष आदिका आधार भावनाशक्ति है । तथा सत्य-असत्य, नित्य- अनित्य, भला-बुरा, उचित-अनुचितका विवेचन, विश्लेषण करके उसमें तुलना करके निर्णय करनेका काम बुद्धि शक्तिका है। बुद्धिशक्ति प्रत्यक्ष अनुमान तथा प्राप्त वाक्यकी सहायतासे यह कार्य करती है । इन पांच शक्तियों में से किसी एक शक्तिके द्वारा मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। जिस शक्ति के सहारे वह मुक्ति प्राप्तिकी साधना करता है उसके अनुसार उस साधना मार्गका नामकरण होता है । जैसे यदि कोई साधक अपनी प्राणशक्तिके सहारे मुक्तिकी साधना करेगा तो उस साधना क्रमको प्राण-योग अथवा हठयोग 'कहेंगे। क्रिया शक्तिका सहारा लेगा तो क्रिया-योग अथवा कर्मयोग कहेंगे।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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