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________________ वचन साहित्यका सार - सर्वस्व ६३ सर्वार्परण अर्थात् सब कुछ उस तत्वको जिसे साधक पाना चाहता हैं अर्पण करके उसकी शरण जाना सर्वोत्तम मार्ग हैं। वचनकारोंने इस तत्वको परशिव कहा है ।भक्तोंने भगवान कहा हैं । योगियोंने परमात्मा कहा है । अर्थात् साधकके लिए. अपना सर्वस्व पर शिव अथवा परमात्मा अथवा भगवान के चरणों में अर्पण करके उनकी शरण जाना साधनाका सर्वोत्तम रूप है । अन्य सब प्रकार की साधनाएं: इसके अंदर ग्राती हैं । अथवा अन्य सव प्रकारकी साधनाएं इस महासाधना की. तैयारी हैं । यही ग्रादिम और अन्तिम साधना है । इसीके अंदर ज्ञान, भक्ति, कर्म,तथा ध्यानका समावेश हो जाता है । वह सर्वारणका ही विविध रूप है । इसलिए वचनकारोंने इन सबका स्पष्ट विवेचन किया है । इसमें संशय नहीं कि साधक सर्वार्पणसे अपनी साधनाका प्रारंभ करता है । किंतु प्रत्येक मनुष्यकी वुद्धिशक्ति, भावनाशक्ति, क्रियाशक्ति, चितनशक्ति आदिका समान विकास नहीं. होता । किसी में क्रियाशक्तिकी प्रधानता रहती है तो किसी में भावनाशक्ति की ।. किसी में वृद्धिशक्तिकी प्रधानता रहती है तो किसी में चिंतनशक्तिकी । मनुष्य मात्र में ये चारों शक्तियां बीज रूपसे अवश्य रहती हैं । किंतु सबमें सबका समान रूपसे विकास हुआ नहीं रहता । इसलिए प्रत्येक साधक अपनी उसी शक्तिका अधिक उपयोग करेगा जो अधिक विकसित हो । उपरोक्त चार साधना मार्गों के लिए इन चार शक्तियोंकी आवश्यकता रहती है । क्रमशः ज्ञान-मार्गके लिए बुद्धिशक्तिकी श्रावश्यकता होती है । भक्ति मार्गके लिए भावनाशक्तिकी श्राव-श्यकता होती है । कर्म • मार्ग के लिए क्रियाशक्तिकी आवश्यकता होती है और ध्यान - मार्ग के लिए एकाग्र चिंतनशक्तिकी । जिस साधकमें जिस शक्तिका अधिक विकास हुआ है वह साधक उस प्रकारका साधना-पथ चुनता है । सर्वार्पण किए : हुए साधक में कोई ज्ञानमार्गी हो सकता है तो कोई भक्तिमार्गी । कोई कर्ममार्गी हो सकता है तो कोई ध्यानमार्गी । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि सर्वार्पण किया हुआ शरण-साधक अपनी अन्य किसी शक्तिका कोई उपयोग करेगा ही नहीं । वह ग्रन्य शक्तियों का उपयोग भी करेगा, किंतु विशेष रूपसे वह अपनी सर्वाधिक विकसित शक्तिका उपयोग करेगा । इसलिए इन सव मार्गों का संक्षेपमेंविचार करना आवश्यक है । किसी मनुष्य में जो शक्तिपुंज होता है इसका विश्लेषरण किया जाय, प्रथवा पृथक्करण किया जाय तो उसमें पांच प्रकारकी शक्तियां होती हैं । (१) प्राणशक्ति, (२) क्रियाशक्ति, (३) चिंतनशक्ति, अथवा ध्यानशक्ति, (४) भावना-शक्ति, तथा (५) वृद्धिशक्ति | ये सब शक्तियां स्वतंत्र नहीं हैं । ये परस्पर संबन्धित होती हैं । परस्परावलंबी हैं । जैसे मनुष्य की आंख, नाक, कान जिह्वा, त्वचा आदिश्रवयव, देखने में अलग-अलग हैं । किंतु ये सब एक ही शरीर के ज्ञानके उपादान 1
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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