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________________ ९४४ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण थे। इसलिये सब देवता और मुनि भयभीत हो गये। इतनी चमक थी, मानो करोड़ों चपलाएँ चमक रही हों। उन्होंने भगवानको प्रसन्न करनेके लिये जगन्माता नाना प्रकारके रत्ननिर्मित दिव्य केयूर और कड़ोंसे भगवती लक्ष्मीका चित्तन किया, जो सबका धारण- विभूषित भुजाओंद्वारा वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शाखा पोषण करनेवाली, सबकी अधीश्वरी, सुवर्णमय कान्तिसे और फलोंसे युक्त कल्पवृक्ष सुशोभित हो। कोमल, सुशोभित होनेवाली तथा सब प्रकारके उपद्रवोंका नाश दिव्य तथा जपाकुसुमके समान लाल रंगवाले चार करनेवाली हैं। उन्होंने भक्तिपूर्वक देवीसूक्तका जप करते हाथोसे परमेश्वर श्रीहरिकी बड़ी शोभा हो रही थी। उनकी हुए श्रीविष्णुको शक्ति अनिन्द्यसुन्दरी नारायणीको ऊपरवाली दो भुजाओंमें शत और चक्र थे तथा शेष दो नमस्कार किया। देवताओंके स्मरण करनेपर सनातन हाथोंमें वरदान और अभयकी मुद्राएँ शोभा पाती थीं। देवता भगवती लक्ष्मी वहाँ प्रकट हुई। देवाधिदेव भगवान्का वक्षःस्थल श्रीवत्स-चिह्न, कौस्तुभमणि तथा श्रीविष्णुकी वल्लभा महालक्ष्मीका दर्शन करके सम्पूर्ण वनमालासे विभूषित था। कानोंमें उदयकालीन देवता बहुत प्रसन्न हुए और हाथ जोड़कर बोले- दिनकरकी-सी दीप्तिवाले दो कुण्डल जगमगा रहे थे। 'देवि ! अपने प्रियतमको प्रसन्न करो। तुम्हारे स्वामी हार, केयर और कड़े आदि आभूषण भिन्न-भिन्न अङ्गोंकी जिस प्रकार भी तीनों लोकोंको अभय दान दें, वही सुषमा बढ़ा रहे थे। वामाङ्गमें भगवती लक्ष्मीजीको साथ उपाय करो।' ले भगवान् नृसिंह बड़ी शोभा पाने लगे। देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवती लक्ष्मी सहसा उस समय लक्ष्मी और नृसिंहको एक साथ देख अपने प्रियतम भगवान् जनार्दनके पास गयीं और देवता और महर्षि मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उनके चरणोंमें पड़कर नमस्कार करके बोली-'प्राणनाथ ! नेत्रोंसे आनन्दाश्रुकी धारा बह चली, जिससे उनका शरीर प्रसन्न होइये।' अपनी प्यारी महारानीको उपस्थित देख भीगने लगा। वे आनन्दसमुद्र में निमग्न होकर बारम्बार सर्वेश्वर श्रीहरिने राक्षस-शरीरके प्रति उत्पन्न क्रोधको भगवान्को नमस्कार करने लगे। उन्होंने अमृतसे भरे हुए तत्काल त्याग दिया और कृपारूपी अमृतसे सरस दृष्टिके रत्नमय कलशोंद्वारा सनातन भगवान्का अभिषेक करके द्वारा देखा। उस समय उनके कृपापूर्ण दृष्टिपातसे संतुष्ट वस्त्र, आभूषण, गन्ध, दिव्य पुष्प तथा मनोरम धूप होकर जय-जयकार करते हुए उच्च स्वरसे स्तुति और अर्पण करके उनका पूजन किया और दिव्य स्तोत्रोंसे नमस्कार करनेवाले लोगोंमें आनन्द और उल्लास छा स्तुति करके बार-बार उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। गया। तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवता हर्षमान हो जगदीश्वर इससे प्रसन्न होकर भगवान् लक्ष्मीपतिने उन देवताओंको श्रीविष्णुको नमस्कार करके हाथ जोड़कर बोले- मनोवाञ्छित वरदान दिया। तत्पश्चात् सबके स्वामी 'भगवन् ! अनेक भुजाओं और चरणोंसे युक्त आपके भक्तवत्सल श्रीहरिने देवताओंको साथ ले प्रह्लादको सब इस अद्भुत रूप और तीनों लोकोंमें व्याप्त दुःसह तेजको दैत्योंका राजा बनाया। प्रह्लादको आश्वासन दे ओर देखने और आपके समीप ठहरनेमें हम सभी देवता देवताओंद्वारा उनका अभिषेक कराकर उन्हें अभीष्ट असमर्थ हो रहे हैं। वरदान और अनन्य भक्ति प्रदान की। इसके बाद देवताओंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर देवेश्वर भगवान के ऊपर फूलोंकी वर्षा हुई और वे देवगणोंसे श्रीविष्णुने उस अत्यन्त भयानक तेजको समेट लिया अपनी स्तुति सुनते हुए वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर और सुखपूर्वक दर्शन करनेयोग्य हो गये। उस समय सब देवता अपने-अपने स्थानको चले गये और उनका प्रकाश शरत्कालके करोड़ों चन्द्रमाओंके समान प्रसन्नतापूर्वक यज्ञभागका उपभोग करने लगे। तबसे प्रतीत होता था। कमलके समान विशाल नेत्र शोभा पा उनका आतङ्क दूर हो गया। उस महादैत्यके मारे जानेसे रहे थे। जटापुञ्जसे सुधाकी वृष्टि हो रही थी। उसमें सबको बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्तर विष्णुभक्त प्रह्लाद
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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