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________________ ९४२ • अयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पयपुराण होकर मुखसे रक्त वमन करते हुए सभी सर्प इधर-उधर लिये अवध्य हो गया है। मुझे परास्त करना किसी भी भाग गये। बड़े-बड़े सर्पोकी ऐसी दुर्दशा देख प्राणीके लिये कठिन है। यदि विष्णु मुझे अपने बल और दैत्यराजका क्रोध और भी बढ़ गया। अब उसने पराक्रमसे जीत लें तो ईश्वरका पद प्राप्त कर सकते हैं। मतवाले दिग्गजोंको प्रह्लादपर आक्रमण करनेकी आज्ञा पिताको यह बात सुनकर प्रहादको बड़ा विस्मय दी। राजाज्ञासे प्रेरित होकर मदोन्मत्त दिग्गज प्रहादको हुआ। उन्होंने दैत्यराजके सामने श्रीहरिके प्रभावका वर्णन चारों ओरसे घेरकर अपने विशाल और मोटे दाँतोंसे करते हुए कहा-'पिताजी ! योगी पुरुष भक्तिके बलसे उनपर प्रहार करने लगे। किन्तु उनके शरीरसे टक्कर लेते उनका सर्वत्र दर्शन करते हैं। भक्तिके विना वे कहीं भी ही दिग्गजोंके दाँत जड़-मूलसहित टूटकर पृथ्वीपर गिर दिखायी नहीं देते। रोष और मत्सर आदिके द्वारा श्रीहरिका पड़े। अब वे बिना दाँतोंके हो गये। इससे उन्हें बड़ी दर्शन होना असम्भव है । देवता, पशु, पक्षी, मनुष्य तथा पीड़ा हुई और वे सब ओर भाग गये। बड़े-बड़े स्थावर समस्त छोटे-बड़े प्राणियोंमें वे व्याप्त हो रहे हैं।' गजराजोंको इस प्रकार भागते देख दैत्यराजके क्रोधकी प्रह्लादके ये वचन सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपुने सीमा न रही। उसने बहुत बड़ी चिता जलाकर उसमें क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके उन्हें डाँटते हुए अपने बेटेको डाल दिया। जलमें शयन करनेवाले कहा- 'यदि विष्णु सर्वव्यापी और परम पुरुष है तो इस भगवान् विष्णुके प्रियतम प्रह्लादको धीरभावसे बैठे देख विषयमें अधिक प्रलाप करनेकी आवश्यकता नहीं है। भयंकर लपटोंवाले अग्निदेवने उन्हें नहीं जलाया। उनकी इसपर विश्वास करनेके लिये कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित ज्वाला शान्त हो गयी। अपने बालकको आगमें भी करो।' ऐसा कहकर दैत्यने सहसा अपने महलके जलते न देख दैत्यपतिके आश्चर्यको सीमा न रही। उसने खंभेको हाथसे ठोंका और प्रहादसे फिर कहा-'यदि पुत्रको अत्यन्त भयंकर विष दे दिया, जो सब प्राणियोंके विष्णु सर्वत्र व्यापक है तो उसे तुम इस खंभेमें प्राण हर लेनेवाला था। किन्तु भगवान् विष्णुके प्रभावसे दिखाओ। अन्यथा झूठी बातें बनानेके कारण तुम्हारा प्रह्लादके लिये विष भी अमृत हो गया। भगवान्को वध कर डालूंगा।' अर्पण करके उनके अमृतस्वरूप प्रसादको हो वे खाया यों कहकर दैत्यराजने सहसा तलवार खोंच लो करते थे। इस प्रकार राजा हिरण्यकशिपुने अपने पुत्रके और क्रोधपूर्वक प्रह्लादको मार डालनेके लिये उनकी वधके लिये बड़े भयंकर और निर्दयतापूर्ण उपाय किये छातीपर प्रहार करना चाहा। उसी समय खंभेके भीतरसे किन्तु प्रह्लादको सर्वथा अवध्य देखकर वह विस्मयसे बड़े जोरकी आवाज सुनायी पड़ी, मानो वनकी गर्जनाके व्याकुल हो उठा और बोला। साथ आसमान फट पड़ा हो । उस महान् शब्दसे दैत्योंके हिरण्यकशिपुने कहा-प्रह्लाद ! तुमने मेरे कान बहरे हो गये। वे जड़से कटे हुए वृक्षोंकी भाँति सामने विष्णुकी श्रेष्ठताका भलीभाँति वर्णन किया है। वे पृथ्वीपर गिर पड़े। उनपर आतङ्क छा गया। उन्हें ऐसा सब भूतोंमें व्यापक होनेके कारण विष्णु कहलाते हैं। जो जान पड़ा, मानो अभी तीनों लोकोंका प्रलय हो जायगा। सर्वव्यापी देवता हैं, वे ही परमेश्वर हैं। अतः तुम मुझे तदनन्तर उस खंभेसे महान् तेजस्वी श्रीहरि विशालकाय विष्णुको सर्वव्यापकताको प्रत्यक्ष दिखाओ। उनके सिंहकी आकृति धारण किये निकले। निकलते ही ऐश्वर्य, शक्ति, तेज, ज्ञान, वीर्य, बल, उत्तम रूप, गुण उन्होंने प्रलयकालीन मेघोंके समान महाभयंकर गर्जना और विभूतियोंको अच्छी तरह देख लें, तब मैं विष्णुको की। वे अनेक कोटि सूर्य और अग्नियोंके समान तेजसे देवता मान सकता हूँ। इस समय संसारमें तथा सम्पन्न थे। उनका मुँह तो सिंहके समान था और शरीर देवताओंमें भी मेरे बलको समानता करनेवाला कोई भी मनुष्यके समान। दाढोंके कारण मुख बड़ा विकराल नहीं है। भगवान् शंकरके वरदानसे मैं सब प्राणियोंके दिखायी देता था। लपलपाती हुई जीभ उनके उद्धत
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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