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________________ ८५८ • अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण अङ्गको दुःख भोगना पड़ा था; इसलिये अब तुम हाथमें वह फल दे दिया और स्वयं कहीं चला गया। कुटुम्बकी आशा छोड़ दो। त्यागमे ही सब प्रकारका उसकी पत्नी तो कुटिल स्वभावकी थी हो। अपनी सखीके आगे रो-रोकर इस प्रकार कहने लगीब्राह्मण बोले-बाबा ! विवेकसे क्या होगा? 'अहो ! मुझे तो बड़ी भारी चिन्ता हो गयी। मैं तो इस मुझे तो जैसे बने वैसे पुत्र ही दीजिये; नहीं तो मैं शोकसे फलको नहीं खाऊँगी। सखी ! इस फलको खानेसे गर्भ मूर्च्छित होकर आपके आगे ही प्राण त्याग दूंगा। पुत्र रहेगा और गर्भसे पेट बढ़ जायगा। फिर तो खाना-पीना आदिके सुखसे हीन यह संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है। कम होगा और इससे मेरी शक्ति घट जायगी। ऐसी संसारमें पुत्र-पौत्रोंसे भरा हुआ गृहस्थाश्रम ही सरस है। दशामें तुम्हीं बताओ, घरका काम-धंधा कैसे होगा? - ब्राह्मणका यह आग्रह देख उन तपोधनने कहा- यदि दैववश गाँवमे लूट पड़ जाय तो गर्भिणी स्त्री भाग 'देखो, विधाताके लेखको मिटानेका हठ करनेसे राजा कैसे सकेगी? यदि कहीं शुकदेवजीकी तरह यह गर्भ चित्रकेतुको कष्ट भोगना पड़ा; अतः दैवने जिसके भी [बारह वर्षोंतक] पेटमें ही रह गया, तो इसे बाहर पुरुषार्थको कुचल दिया हो, ऐसे पुरुषके समान तुम्हें कैसे निकाला जायगा? यदि कहीं प्रसवकालमें बच्चा पुत्रसे सुख नहीं मिलेगा; फिर भी तुम हठ करते जा रहे टेढ़ा हो गया, तब तो मेरी मौत ही हो जायगी । बच्चा पैदा हो। तुम्हें केवल अपना स्वार्थ ही सूझ रहा है; अतः मैं होते समय बड़ी असह्य पीड़ा होती है। मैं सुकुमारी स्त्री, तुमसे क्या कहूँ। भला उसे कैसे सह सकूँगी? गर्भवती अवस्थामें जब मेरा शरीर भारी हो जायगा और चलने-फिरनेमें आलस्य लगेगा, उस समय मेरी ननद-रानी आकर घरका सारा माल-मता उड़ा ले जायेंगी। और तो और, यह सत्यशौचादिका नियम पालना तो मेरे लिये बहुत ही कठिन दिखायी देता है। जिस स्त्रीके सन्तान होती है, उसे बच्चोंके लालन-पालनमें भी कष्ट भोगना पड़ता है। मैं तो समझती हूँ, बाँझ अथवा विधवा स्त्रियाँ ही अधिक सुखी होती हैं।' नारदजी ! इस प्रकार कुतर्क करके उस ब्राह्मणीने फल नहीं खाया। जब पतिने पूछा-'तुमने फल खाया?' तो उसने कह दिया—'हाँ, खा लिया। एक दिन उसकी बहिन अपने-आप ही उसके घर आयी। अन्तमें ब्राह्मणका बहुत आग्रह देख संन्यासीने उसे धुन्धुलीने उसके आगे अपना सारा वृत्तान्त सुनाकर एक फल दिया और कहा-'इसे तुम अपनी पत्नीको कहा-'बहिन ! मुझे इस बातकी बड़ी चिन्ता है कि खिला देना । इससे उसके एक पुत्र होगा। तुम्हारी स्त्रीको सत्तान न होनेपर मैं पतिको क्या उत्तर दूंगी। इस दुःखके चाहिये कि वह एक वर्षतक सत्य, शौच, दया और कारण मैं दिनोंदिन दुबली हुई जा रही हूँ। बताओ, मैं दानका नियम पालती हुई प्रतिदिन एक समय भोजन क्या करूँ? तब उसने कहा- 'दीदी ! मेरे पेटमें बच्चा करे। इससे उसका बालक अत्यन्त शुद्ध स्वभाववाला है। प्रसव होनेपर वह बालक मैं तुमको दे दूंगी। तबतक होगा।' ऐसा कहकर वे योगी महात्मा चले गये और तुम गर्भवती स्त्रीकी भाँति घरमें छिपकर मौजसे रहो। ब्राह्मण अपने घर लौट आया। यहाँ उसने अपनी पत्नीके तुम मेरे पतिको धन दे देना । इससे वे अपना बालक
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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