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________________ उतरखण्ड] • कथामें भगवानका प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा तथा वनगमन . नारदजी ! इस विषयमें अब हम तुम्हें एक प्राचीन खड़ा हो गया। इतिहास सुनाते हैं, जिसके श्रवणमात्रसे पापोंका नाश हो संन्यासीने पूछा-ब्राह्मण ! तुम रोते कैसे हो? जाता है। पूर्वकालकी बात है-तुङ्गभद्रा नदीके तटपर तुम्हें क्या भारी चिन्ता सता रही है? तुम शीघ्र ही मुझसे एक उत्तम नगर बसा हुआ था। वहाँ सभी वर्गों के लोग अपने दुःखका कारण बताओ। अपने-अपने धर्मोंका पालन करते और सत्य एवं ब्राह्मणने कहा-मुने! मैं अपना दुःख क्या सत्कर्ममें लगे रहते थे। उस नगरमें आत्मदेव नामक कहूँ, यह सब मेरे पूर्वपापोंका सञ्चित फल है। [मेरे एक ब्राह्मण रहता था, जो समस्त वेदोंका विशेषज्ञ और कोई सन्तान नहीं है, इससे मेरे पितर भी दुःखी है; वे] श्रौत-स्मार्त कोंमें निष्णात था। वह ब्राह्मण द्वितीय मेरे पूर्वज मेरी दी हुई जलाञ्जलिको जब पीने लगते हैं, सूर्यकी भाँति तेजस्वी जान पड़ता था। यद्यपि वह उस समय वह उनकी चिन्ताजनित साँसोंसे कुछ गर्म हो भिक्षासे ही जीवन-निर्वाह करता था, तो भी लोकमें जाती है। देवता और ब्राह्मण भी मेरी दी हुई वस्तुको धनवान् समझा जाता था। उसकी स्त्रीका नाम धुन्धुली प्रसन्नतापूर्वक नहीं लेते। सन्तानके दुःखसे मेरा संसार था। वह सुन्दरी तो थी ही, अच्छे कुलमें भी उत्पन्न हुई सूना हो गया है, अतः अब मैं यहाँ प्राण त्यागनेके लिये थी। फिर भी स्वभावकी बड़ी हठीली थी। सदा अपनी आया हूँ । सन्तानहीन पुरुषका जीवन धिक्कारके योग्य है। ही टेक रखती थी। हमेशा दूसरे लोगोंकी चर्चा किया जिस घरमें कोई सन्तान-कोई बाल-बच्चे न हों, वह घर करती थी। उसमें क्रूरता भी थी तथा वह प्रायः बहुत भी धिक्कार देनेयोग्य है। निस्सन्तान पुरुषके धनको भी बकवाद किया करती थी। परन्तु घरका काम-काज धिक्कार है ! तथा सन्तानहीन कुल भी धिक्कारके ही योग्य करने में बड़ी बहादुर थी। कंजूस भी कम नहीं थी। है। [मैं अपने दुर्भाग्यको कहाँतक बताऊँ?] जिस कलहका तो उसे व्यसन-सा हो गया था। वे दोनों गायको पालता हूँ, वह भी सर्वथा वन्ध्या हो जाती है। पति-पत्नी बड़े प्रेमसे रहते थे। फिर भी उन्हें कोई सन्तान मैं जिसको रोपता है, उस वृक्षमें भी फल नहीं लगते। नहीं थी। इस कारण धन, भोग-सामग्री तथा घर आदि इतना ही नहीं, मेरे घरमें बाहरसे जो फल आता है, वह कोई भी वस्तु उन्हें सुखद नहीं जान पड़ती थी। कुछ भी शीघ्र ही सूख जाता है। जब मैं ऐसा अभागा और कालके पश्चात् उन्होंने सन्तान प्राप्तिके लिये धर्मका सन्तानहीन हैं, तो इस जीवनको रखनेसे क्या लाभ है। अनुष्ठान आरम्भ किया। वे दीनोंको सदा गौ, भूमि, यों कहकर वह ब्राह्मण दुःखसे व्यथित हो उठा सुवर्ण और वस्त्र आदि दान करने लगे। उन्होंने अपने और उन संन्यासी बाबाके पास फूट-फूटकर रोने लगा। धनका आधा भाग धर्मके मार्गपर खर्च कर दिया; तो भी संन्यासीके हृदयमें बड़ी करुणा भर आयी। वे योगी भी उनके न कोई पुत्र हुआ, न पुत्री। इससे ब्राह्मणको बड़ी थे, उन्होंने ब्राह्मणके ललाटमें लिखे हुए विधाताके चिन्ता हुई। वह आकुल हो उठा और एक दिन अत्यन्त अक्षरोंको पढ़ा और सब कुछ जानकर विस्तारपूर्वक दुःखके कारण घर छोड़कर वनमें चला गया। वहाँ कहना आरम्भ किया। दोपहरके समय उसे प्यास लगी, इसलिये वह एक संन्यासीने कहा-ब्राह्मण ! सुनो, मैंने इस पोखरेके किनारे गया और वहाँ जल पीकर बैठ रहा। समय तुम्हारा प्रारब्ध देखा है। उससे जान पड़ता है कि सन्तानहीनताके दुःखसे उसका सारा शरीर सूख गया सात जन्मोंतक तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं हो था। उसके बैठनेके दो ही घड़ी बाद एक संन्यासी वहाँ सकती; अतः सन्तानका मोह छोड़ो, क्योंकि यह महान् आये। उन्होंने भी पोखरेमें जल पीया। ब्राह्मणने देखा, अज्ञान है। देखो, कर्मको गति बड़ी प्रबल है; अतः वे जल पी चुके है, तो वह उनके पास गया और चरणोंमें विवेकका आश्रय लेकर संसारकी वासना त्याग दो। मस्तक झुकाकर जोर-जोरसे साँस लेता हुआ सामने अजी ! पूर्वकालमें सन्तानके ही कारण राजा सगर और
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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