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________________ उत्तरखण्ड ] *********** • सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा वैराग्यका प्रकट होना. जायेंगे। उस समय उनके भारसे दबी हुई यह गोरूपधारिणी भूमि किसकी शरणमें जायगी। कमल नयन ! मुझे तो आपके सिवा दूसरा कोई इसका रक्षक नहीं दिखायी देता; इसलिये भक्तवत्सल ! आप साधु पुरुषोंपर दया करके यहाँसे मत जाइये। निराकार एवं चिन्मय होते हुए भी आपने भक्तोंके लिये ही यह सगुण रूप धारण किया है। अब वे ही भक्त आपके वियोगमें इस पृथ्वीपर कैसे रह सकेंगे ? निर्गुणको उपासनामें तो बहुत कठिनाई है, अतः वह उनसे हो नहीं सकती; इसलिये मेरे कथनपर कुछ विचार कीजिये । सूतजी कहते हैं- प्रभासक्षेत्रमें उद्धवजीके ये वचन सुनकर श्रीहरिने सोचा- भक्तोंके अवलम्बके लिये इस समय मुझे क्या करना चाहिये ?' इस प्रकार विचार करके भगवान् ने अपना सम्पूर्ण तेज श्रीमद्भागवतमें स्थापित कर दिया। वे अन्तर्धान होकर श्रीमद्भागवतरूपी समुद्र में प्रवेश कर गये इसलिये यह श्रीमद्भागवत भगवान्‌की साक्षात् वाङ्मयी मूर्ति है। इसके सेवनसे तथा सुनने, पढ़ने और दर्शन करनेसे यह सब पापोंका नाश कर देती है। इसीसे इसका सप्ताहश्रवण सबसे बढ़कर माना गया है। कलियुगमें अन्य सब साधनोंको छोड़कर इसीको प्रधान धर्म बताया गया है। दुःख, दरिद्रता, दुर्भाग्य और पापोंको धो डालनेके लिये तथा काम और क्रोधको काबू में करनेके लिये कलिकालमें यही प्रधान धर्म कहा गया है; अन्यथा भगवान् विष्णुकी मायासे पिण्ड छुड़ाना देवताओंके लिये भी कठिन है, फिर मनुष्य तो उसे छोड़ ही कैसे सकते हैं। अतः इससे छुटकारा पानेके लिये भी सप्ताह श्रवणका विधान किया गया है। शौनकजी ! जब सनकादि ऋषि इस प्रकार सप्ताहश्रवणकी महान् महिमाका वर्णन कर रहे थे, उस समय सभामें एक बड़े आश्चर्यकी बात हुई; उसे मैं बतलाता हूँ, सुनिये। प्रेमरूपा भक्ति तरुण अवस्थाको प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रोंको साथ ले सहसा वहाँ प्रकट हो गयी। उस समय उसके मुखसे 'श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे! हे नाथ! नारायण! वासुदेव !' आदि ८५५ ......................................................... भगवन्नामोंका बारम्बार उच्चारण हो रहा था। उस समाजमें बैठे हुए श्रोताओंने जब श्रीमद्भागवतके अर्थभूत, भगवान्‌के गलेकी हार एवं मनोहर वेषवाली भक्तिदेवीको वहाँ उपस्थित देखा तो वे मन-ही-मन तर्क करने लगे – 'ये मुनियोंके बीचमें कैसे आ गयीं ? इनका यहाँ किस प्रकार प्रवेश हुआ ?' तब सनकादिने कहा - इस समय ये भक्तिदेवी यहाँ कथाके अर्थसे ही प्रकट 1765 हुई हैं। उनके ये वचन सुनकर भक्तिने पुत्रोंसहित अत्यन्त विनीत हो सनत्कुमारजीसे कहा - 'महानुभाव ! मैं कलियुगमें नष्टप्राय हो गयी थी किन्तु आपने भागवत कथारूप अमृतसे सींचकर आज फिर मुझे पुष्ट कर दिया। अब आपलोग बताइये, मैं कहाँ रहूँ ?' तब ब्रह्मकुमार सनकादि ऋषियोंने कहा'भक्ति भक्तोंके हृदयमें भगवान् गोविन्दके सुन्दर रूपकी स्थापना करनेवाली है। वह अनन्य प्रेम प्रदान करनेवाली तथा संसार - रोगको हर लेनेवाली है। तुम वही भक्ति हो, अतः धैर्य धारण करके नित्य निरन्तर भक्तोंके हृदयमन्दिरमें निवास करो। वहाँ ये कलियुगके दोष सारे संसारपर प्रभाव डालनेमें समर्थ होकर भी तुम्हारी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते।' इस प्रकार उनकी आशा पाते ही भक्तिदेवी भगवद्भक्तोंके हृदय मन्दिरमें विराजमान हो गयीं। शौनकजी! जिनके हृदयमें एकमात्र श्रीहरिकी भक्तिका ही निवास है, वे मनुष्य सारे संसारमें
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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