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________________ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण कोई अन्तर नहीं मानते। जो मनुष्य प्रतिदिन आक्रमण, मनुष्योंकी आयुके ह्रास और कलियुगके श्रीमद्भागवत-शास्त्रका अर्थसहित पाठ करता है, उसके अनेक दोषोंकी सम्भावनाके कारण एक सप्ताहमें ही करोड़ों जन्योंके किये हुए पापका नाश हो जाता भागवतके श्रवणका नियम किया गया है। कलियुगमें है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो नित्यप्रति अधिक दिनोतक मनकी वृत्तियोंपर काबू रखना, श्रीमद्भागवतके आधे या चौथाई श्लोकका भी पाठ नियमोंका पालन करना और विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करता है, उसे राजसूय और अश्वमेघ यज्ञोंका फल प्राप्त करना बहुत कठिन है; इसलिये इस समय सप्ताहहोता है। नित्य श्रीमद्भागवतका पाठ करना, श्रीहरिका श्रवणका विधान है। प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक श्रीमद्भागवतको ध्यान करना, तुलसीके पौधेको सींचना और गौओंकी आदिसे अन्ततक सुननेका जो फल है, वही सेवा करना-ये चारों समान हैं। जो पुरुष अन्तकालमें श्रीशुकदेवजीने सप्ताहश्रवणमें भी बताया है। तपस्या, श्रीमद्भागवतका वाक्य सुन लेता है, उसपर प्रसन्न हो योग और समाधिसे भी जिस फलकी प्राप्ति असम्भव है, भगवान् गोविन्द उसे अपना वैकुण्ठधामतक दे डालते वह सब श्रीमद्भागवतका सप्ताह-श्रवण करनेसे अनायास है। जो मानव इसे सोनेके सिंहासनपर रखकर श्रीविष्णु- ही मिल जाता है। सप्ताहश्रवण यज्ञसे भी बढ़कर अपने भक्तको दान करता है, उसे निश्चय ही भगवान् महत्त्वकी घोषणा करता है, व्रतसे भी अधिक होनेका श्रीकृष्णका सायुज्य प्राप्त होता है। जिस दुष्टने अपने दावा करता है, तपस्यासे भी श्रेष्ठ होनेकी गर्जना करता है जन्यसे लेकर समस्त जीवनमें चित्तको एकाग्र करके और तीर्थसे तो वह सदा बढ़कर है ही। इतना ही नहीं, कभी श्रीमद्भागवत-कथामृतका थोड़ा-सा भी रसास्वादन सप्ताहश्रवण योगसे भी बढ़कर है, ध्यान और ज्ञानसे भी नहीं किया, उसने अपना सारा जन्म चाण्डाल और गधेके बढ़ा-चढ़ा है। कहाँतक उसकी विशेषताका वर्णन करें। समान व्यर्थ ही गवा दिया। वह तो माताको प्रसवकी अरे ! वह तो सबसे बढ़-चढ़कर है। पीड़ा पहुँचानेके लिये ही उत्पन्न हुआ था। यह कितने शौनकजीने पूछा-सूतजी ! यह तो आपने बड़े खेदकी बात है। जिसने इस शुक-शास्त्रके थोड़े-से भी आचर्यकी बात बतायी। माना कि यह श्रीमद्भागवतवचन नहीं सुने, वह पापात्मा जीते-जी भी मुर्देके ही पुराण योगवेत्ता ब्रह्माजीके भी आदिकारण भगवान् समान है। वह इस पृथ्वीका भाररूप है। मनुष्य होकर श्रीपुरुषोत्तमका निरूपण करनेवाला है; परन्तु यह इस भी पशुके ही तुल्य है। उसे धिक्कार है-इस प्रकार युगमे ज्ञान आदि साधनोंका तिरस्कार करके उनसे भी उसके विषयमें स्वर्गके प्रधान-प्रधान देवता कहा करते बढ़कर कल्याणका साधक कैसे हो गया ?" है। संसारमें श्रीमद्भागवतकी कथा परम दुर्लभ है। जब सूतजीने कहा-शौनकजी! जब भगवान् करोड़ो जन्मोके पुण्योंका उदय होता है. तभी इसकी प्राप्ति श्रीकृष्ण इस धराधामको छोड़कर अपने परम धामको होती है। पधारनेके लिये उद्यत हुए, उस समय उद्धवजीने उनके इसलिये योगनिधि बुद्धिमान् नारदजी ! मुखसे एकादशस्कन्धमें वर्णित ज्ञानका उपदेश सुनकर भी श्रीमद्भागवतका यत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिये। इसके उनसे इस प्रकार कहा। लिये दिनोंका कोई नियम नहीं है । सदा ही इसका सुनना उद्धवजी बोले-गोविन्द ! अब आप तो अपने उत्तम माना गया है। सत्यभाषण और ब्रह्मचर्यका पालन भक्तोंका कार्य सिद्ध करके परमधामको पधारना चाहते हैं; करते हुए सदा ही इसको सुनना उत्तम है, किन्तु किन्तु मेरे मनमें एक बहुत बड़ी चिन्ता है, उसे सुनकर कलियुगमें ऐसा होना बहुत ही कठिन है, इसलिये इसके आप मुझे सुखी कीजिये । देखिये, यह भयङ्कर कलिकाल विषयमें श्रीशुकदेवजीके आदेशके अनुसार यह विशेष आया ही चाहता है। अब फिर संसारमें दुष्टलोग उत्पन्न विधि जान लेनी चाहिये। मनके असंयम, रोगोंके होंगे। उनके संसर्गसे साधु पुरुष भी उग्र स्वभाव हो
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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