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________________ ८५२ · अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • 'करनेवाले हैं। आपका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता; इसलिये मेरे सन्देहका निवारण कीजिये। इस कार्यमें विलम्ब नहीं करना चाहिये। । श्रीसनकादि बोले – नारदजी ! श्रीमद्भागवतकी कथा वेद और उपनिषदोंके सारसे प्रकट हुई है, अतः उनसे पृथक् फलके रूपमें आकर यह उनकी अपेक्षा भी अत्यन्त उत्तम प्रतीत होती है। जैसे आमके वृक्षमें जड़से लेकर शाखातक रस मौजूद रहता है, किन्तु उसका आस्वादन नहीं किया जा सकता; फिर वही एकत्रित होकर जब उससे पृथक् फलके रूपमें प्रकट होता है तो संसारमें सबके मनको प्रिय लगता है जैसे दूधमें घी रहता है; किन्तु उस समय उसका अलग स्वाद नहीं मिलता। फिर वही जब उससे पृथक् हो जाता है तो दिव्य जान पड़ता है और देवताओंके लिये भी स्वादवर्धक हो जाता है। खाँड ईखके आदि, मध्य और अन्त - प्रत्येक भागमें व्याप्त रहती है; तथापि उससे पृथक् होनेपर ही उसमें अधिक मधुरता आती है। इसी प्रकार यह श्रीमद्भागवतकी कथा भी है। यह श्रीमद्भागवतपुराण वेदोंके समान माना गया है। श्रीवेदव्यासजीने भक्ति, ज्ञान और वैराग्यकी — ⭑ सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा- रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना नारदजी बोले – ज्ञानयोगके विशेषज्ञ महात्माओ ! अब मैं भक्ति, ज्ञान और वैराग्यकी स्थापना करनेके लिये श्रीशुकदेवजीके कहे हुए श्रीमद्भागवतशास्त्रकी कथाद्वारा लपूर्वक उज्ज्वल ज्ञानयज्ञ करूंगा। यह यज्ञ मुझे कहाँ करना चाहिये ? इसके लिये कोई स्थान बतलाइये। आपलोग वेदोंके पारंगत विद्वान् हैं, इसलिये मुझे शुकशास्त्र (श्रीमद्भागवत) की महिमा भी सुनाइये और यह भी बताइये कि श्रीमद्भागवतकी कथा कितने दिनोंमें सुननी चाहिये तथा उसके सुननेके लिये कौन सी विधि है। [ संक्षिप्त पद्मपुराण श्रीसनकादिने कहा- नारदजी! आप विनयी और विवेकी हैं, सुनिये- हम आपकी पूछी हुई सभी स्थापनाके लिये ही इसे प्रकट किया है। पूर्वकालमें जिस समय वेद-वेदान्तके निष्णात विद्वान् और गीताकी भी रचना करनेवाले वेदव्यासजी खिन्न होकर अज्ञानके समुद्रमें डूब रहे थे, उस समय आपने ही उन्हें चतुःश्लोकी भागवतका उपदेश किया था। उसका श्रवण करते ही व्यासदेवकी सारी चिन्ताएँ तत्काल दूर हो गयी थीं। उसी श्रीमद्भागवतके विषयमें आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है, जो आप हमसे सन्देह पूछ रहे हैं? श्रीमद्भागवत-शास्त्र समस्त शोक और दुःखका विनाश करनेवाला है। नारदजीने कहा- महानुभावो ! आपका दर्शन जीवके समस्त अमङ्गलका तत्काल नाश कर देता है और सांसारिक दुःखरूपी दावानलसे पीड़ित प्राणियोंपर शान्तिकी वर्षा करता है। आप निरन्तर शेषजीके सहस्र मुखोद्वारा वर्णित भगवत्कथामृतका पान करते रहते हैं, मैं प्रेमलक्षणा-भक्तिका प्रकाश करनेके उद्देश्यसे आपकी शरणमें आया हूँ। अनेक जन्मोंके सञ्चित सौभाग्यप्रद पुण्यका उदय होनेपर जब कभी मनुष्यको सत्संग प्राप्त होता है, तभी अज्ञानजनित मोहमय महान् अन्धकारका नाश करके विवेकका उदय होता है। बातें बताते हैं। हरद्वारके समीप एक आनन्द नामका घाट है। वहाँ अनेकों ऋषि महर्षि रहते हैं तथा देवता और सिद्धलोग भी उसका सेवन करते हैं। नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे वह स्थान व्याप्त है। वहाँ नूतन एवं कोमल बालू बिछी हुई है। वह घाट बड़ा ही सुरम्य और एकान्त प्रदेशमें है। सुवर्णमय कमल उसकी शोभा बढ़ाया करते हैं। उसके आस-पास रहनेवाले जीवोंके मनमें वैरका भाव नहीं ठहरने पाता। वहाँ अधिक समारोहके बिना ही आपको ज्ञान यज्ञका अनुष्ठान करना चाहिये। उस स्थानपर जो कथा होगी, उसमें बड़ा अपूर्व रस मिलेगा। भक्ति भी निर्बल एवं जरा जीर्ण शरीरवाले अपने दोनों पुत्रोंको आगे करके वहीं आ जायगी; क्योंकि
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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