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________________ उत्तरखण्ड ] • भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग ८५१ ---------- नहीं है। भला, योगी नारदको भी स्वयं जिसका ज्ञान नहीं है, उसे दूसरे संसारी मनुष्य कैसे बता सकते हैं?' इस प्रकार जिन-जिन मुनियोंसे यह बात पूछी गयी, उन सबने निर्णय करके यही बताया कि यह कार्य दुस्साध्य है। सूतजी बोले- -तब नारदजी चिन्तासे आतुर हो बदरीवनमें आये। उन्होंने मन ही मन यह निश्चय किया था कि 'उस साधनकी प्राप्तिके लिये यहीं तपस्या करूँगा।' बदरीवनमें पहुँचते ही उन्हें अपने सामने करोड़ों सूर्योंकि समान तेजस्वी सनकादि मुनीश्वर दिखायी दिये । तब मुनिश्रेष्ठ नारदजीने उनसे कहा – 'महात्माओ । इस समय बड़े सौभाग्यसे मुझे आपलोगोंका समागम प्राप्त हुआ है। कुमारो ! आप मुझपर कृपा करके अब शीघ्र ही उस साधनको बताइये। आप सब लोग योगी, बुद्धिमान् और बहुश विद्वान् हैं। देखनेमें पाँच वर्षके बालक से होनेपर भी आप पूर्वजोंके भी पूर्वज है। आपलोग सदा वैकुण्ठधाममें निवास करते हैं। निरन्तर हरिनामकीर्तनमें तत्पर रहते हैं। भगवल्लीलामृतका रसास्वादन करके सदा उन्मत्त बने रहते हैं और एकमात्र भगवत्कथा ही आपके जीवनका आधार है। आपके मुखमें सदा 'हरिः शरणम्' (भगवान् ही हमारे रक्षक हैं) यह मन्त्र विद्यमान रहता है। इसीसे कालप्रेरित वृद्धावस्था आपको बाधा नहीं पहुँचा सकती। पूर्वकालमें आपके भ्रूभङ्गमात्रसे भगवान् विष्णुके द्वारपाल जय और विजय तुरंत ही पृथ्वीपर गिर पड़े थे और फिर आपहीकी कृपासे वे पुनः वैकुण्ठधाममें पहुँचे। मेरा अहोभाग्य है, जिससे इस समय आपका दर्शन हुआ। मैं बहुत दीन हूँ और आपलोग स्वभावसे ही दयालु है; अतः मुझपर आपकी कृपा होनी चाहिये। आकाशवाणीने जिस साधनकी ओर संकेत किया है, वह क्या है? इसे बताइये और किस प्रकार उसका अनुष्ठान करना चाहिये, इसका विस्तारसहित वर्णन कीजिये। भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको किस प्रकार सुख प्राप्त हो सकता है और किस तरह इनका प्रेमपूर्वक यत्र करके सब वर्णोंमें प्रचार किया जा सकता है ?" नारदजीने कहा- मैंने वेदध्वनि, वेदान्तघोष और गीतापाठ आदिके द्वारा ज्ञान और वैराग्यको बहुत जगाया; किन्तु वे उठ न सके। ऐसी दशामें श्रीमद्भागवतका पाठ सुनानेसे वे कैसे जग सकेंगे; क्योंकि श्रीमद्भागवतकथाके श्लोक - श्लोकमें और पद-पदमें वेदोंका ही श्रीसनकादि बोले – देवर्षे ! आप चिन्ता न अर्थ भरा हुआ है आपलोग शरणागत पुरुषोंपर दया सं०प०पु० २८ करें। अपने मनमें प्रसन्न हों। उनके उद्धारका एक सुगम उपाय पहलेसे ही मौजूद है। नारदजी! आप धन्य हैं। विरक्तोंके शिरोमणि हैं। भगवान् श्रीकृष्णके दासोंमें सदा आगे गिनने योग्य हैं तथा योगमार्गको प्रकाशित करनेवाले साक्षात् सूर्य ही हैं। आप जो भक्तिके लिये इतना उद्योग कर रहे हैं, यह आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णके भक्तको तो भक्तिकी सदा स्थापना करना उचित ही है। ऋषियोनि इस संसारमें बहुत से मार्ग प्रकट किये हैं; किन्तु वे सभी परिश्रमसाध्य हैं और उनमेंसे अधिकांश स्वर्गरूप फलकी ही प्राप्ति करानेवाले हैं। भगवान्‌की प्राप्ति करानेवाला मार्ग तो अभीतक गुप्त ही रहा है। उसका उपदेश करनेवाला पुरुष प्रायः बड़े भाग्यसे मिलता है। आपको आकाशवाणीने पहले जिस कर्तव्यका संकेत किया है, उसे बतलाया जाता है। आप स्थिर एवं प्रसन्नचित्त होकर सुनिये। नारदजी ! द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ तथा स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ- ये सब तो स्वर्गादिकी प्राप्ति करानेवाले कर्ममात्रके ही सूचक हैं, सत्कर्मके नहीं। सत्कर्म (मोक्षदायक कर्म) का सूचक तो विद्वानोंने केवल ज्ञानयज्ञको माना है। श्रीमद्भागवतका पारायण ही वह ज्ञानयज्ञ है, जिसका शुक आदि महात्माओंने मान किया है। उसके शब्द सुननेसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको बड़ा बल मिलेगा। इससे ज्ञानवैराग्यका कष्ट दूर हो जायगा और भक्तिको सुख मिलेगा। श्रीमद्भागवतकी ध्वनि होनेपर कलियुगके ये सारे दोष उसी प्रकार दूर हो जायँगे, जैसे सिंहकी गर्जना सुनकर भेड़िये भाग जाते हैं तब प्रेमरसकी धारा बहानेवाली भक्ति ज्ञान और वैराग्यके सहित प्रत्येक घरमें तथा प्रत्येक व्यक्तिके हृदयमें क्रीड़ा करेगी।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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