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________________ उत्तरखण्ड ] . श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य • मृत्युको प्राप्त होकर ब्रह्मराक्षस हुए। वे भूख और प्याससे पीड़ित हो इस पृथ्वीपर घूमते हुए उसी ताड़-वृक्षके पास आये और उसके मूल भागमें विश्राम करने लगे। इसके बाद पत्नीने पतिसे पूछा- 'नाथ ! हमलोगोंका यह महान् दुःख कैसे दूर होगा तथा इस ब्रह्मराक्षसयोनिसे किस प्रकार हम दोनोंकी मुक्ति होगी ?' तब उस ब्राह्मणने कहा- 'ब्रह्मविद्याके उपदेश, अध्यात्म-तत्त्वके विचार और कर्मविधिके ज्ञान बिना किस प्रकार सङ्कटसे छुटकारा मिल सकता है।' यह सुनकर पत्नीने पूछा- 'किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम' (पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है और कर्म कौन-सा है ?) उसकी पत्नीके इतना कहते ही जो आश्चर्यकी घटना घटित हुई, उसको सुनो। उपर्युक्त वाक्य गीताके आठवें अध्यायका आधा श्लोक था। उसके श्रवणसे वह वृक्ष उस समय ताड़के रूपको त्यागकर भावशर्मा नामक ब्राह्मण हो गया। तत्काल ज्ञान होनेसे विशुद्धचित्त होकर वह पापके चोलेसे मुक्त हो गया। तथा उस आधे श्लोकके ही माहात्म्यसे वे पति-पत्नी भी मुक्त हो गये उनके मुखसे दैवात् ही आठवें अध्यायका आधा श्लोक निकल पड़ा था। तदनन्तर आकाशसे एक दिव्य विमान आया और वे दोनों पति-पत्नी उस विमानपर आरूढ़ होकर स्वर्गलोकको चले गये । वहाँका यह सारा वृत्तान्त अत्यन्त आश्चर्यजनक था । - ८२७ ******* भागीरथीके तटपर बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्मा मेरे भक्तिरससे परिपूर्ण होकर अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा मे किंकर्म पुरुषोत्तम । - है। वह अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके गीताके आठवें अध्यायके आधे श्लोकका जप करता है। मैं उसकी तपस्यासे बहुत सन्तुष्ट हूँ। बहुत देरसे उसकी तपस्याके अनुरूप फलका विचार कर रहा था। प्रिये ! इस समय वह फल देनेको मैं उत्कण्ठित हूँ। पार्वतीजीने पूछा- भगवन्! श्रीहरि सदा प्रसन्न होनेपर भी जिसके लिये चिन्तित हो उठे थे, उस भगवद्भक्त भावशर्माने कौन सा फल प्राप्त किया ? उसके बाद उस बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्माने आदरपूर्वक उस आधे श्लोकको लिखा और देवदेव जनार्दनकी आराधना करनेकी इच्छासे वह मुक्तिदायिनी श्रीमहादेवजी बोले-देवि ! द्विजश्रेष्ठ भावशर्मा काशीपुरीमें चला गया। वहाँ उस उदार बुद्धिवाले ब्राह्मणने प्रसन्न हुए भगवान् विष्णुके प्रसादको पाकर आत्यन्तिक भारी तपस्या आरम्भ की। उसी समय क्षीरसागरकी सुख (मोक्ष) को प्राप्त हुआ तथा उसके अन्य वंशज भी, कन्या भगवती लक्ष्मीने हाथ जोड़कर देवताओंके भी जो नरक यातनामें पड़े थे, उसीके शुभकर्मसे भगवद्धामको देवता जगत्पति जनार्दनसे पूछा- 'नाथ! आप सहसा प्राप्त हुए। पार्वती यह आठवें अध्यायका माहात्म्य नींद त्यागकर खड़े क्यों हो गये ?" थोड़ेमें ही तुम्हें बताया है। इसपर सदा विचार करते श्रीभगवान् बोले- देवि ! काशीपुरीमें रहना चाहिये ।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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