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________________ ७२४ अर्चयस्थ हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् । [संक्षिप्त पद्मपुराण है, उसे कोटि यज्ञोंकी अपेक्षा भी अधिक फल देनेवाली नहीं प्राप्त होते। जो लोग भगवान् केशवके इस समझना चाहिये। पार्वती ! जो द्विज रास्ता चलते हुए भी माहात्म्यका श्रवण करते हैं, वे मनुष्योंमें श्रेष्ठ, पवित्र एवं श्रीविष्णुसहस्त्रनामका पाठ करते हैं, उन्हें मार्गजनित दोष पुण्यस्वरूप हैं। गृहस्थ-आश्रमकी प्रशंसा तथा दान-धर्मकी महिमा श्रीमहादेवजी कहते हैं-देवि ! सुनो, अब मैं गृहस्थाश्रम परम पवित्र है। घर सदा तीर्थके समान धर्मके उत्तम माहात्म्यका वर्णन करूँगा, जिसका श्रवण पावन है। इस पवित्र गृहस्थाश्रममें रहकर विशेषरूपसे करनेसे इस पथ्वीपर फिर कभी जन्म नहीं होता। धर्मसे दान देना चाहिये। यहाँ देवताओंका पूजन होता है, अर्थ, काम और मोक्ष-तीनोंकी प्राप्ति होती है; अतः अतिथियोंको भोजन दिया जाता है और [थके-माद] जो धर्मके लिये चेष्टा करता है, वही विशेषरूपसे विद्वान् राहगीरोंको ठहरनेका स्थान मिलता है। अतः गृहस्थाश्रम माना गया है।* जो कभी कुत्सित कर्ममें प्रवृत्त नहीं परम धन्य है। ऐसे गृहस्थाश्रममें रहकर जो लोग होता, वह घरपर भी पाँचों इन्द्रियोंका संयमरूप तप कर ब्राह्मणोकी पूजा करते हैं, उन्हें आयु, धन और संतानकी सकता है। जिसकी आसक्ति दूर हो गयी है, उसके लिये कभी कमी नहीं होती। घर भी तपोवनके ही समान है; अतः गृहस्थाश्रमको स्वधर्म शुभ समय आनेपर चन्द्रदेवकी पूजा करके नित्यबताया गया है। गिरिराजकिशोरी ! जिन्होंने अपनी नैमित्तिक कोका अनुष्ठान करनेके पशात् अपनी शक्तिके इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया है, उनके लिये इस गृहस्थ अनुसार दान देना चाहिये । दानसे मनुष्य निस्सन्देह अपने आश्रमको पार करना कठिन है; वे इस शुभ एवं श्रेष्ठतम पापोंका नाश कर डालता है। दानके प्रभावसे इस लोकमें आश्रमका विनाश कर डालते है। ब्रह्मा आदि देवताओंने अभीष्ट भोगोंका उपभोग करके मनुष्य सनातन मनीषी पुरुषोंके लिये गृहस्थ-धर्मको बहुत उत्तम बताया श्रीविष्णुको प्राप्त होता है। जो अभक्ष्य-भक्षणमें प्रवृत्त है। साधु पुरुष वनमें तपस्या करके जब भूखसे पीड़ित रहनेवाला, गर्भस्थ बालककी हत्या करनेवाला, गुरुहोता है, तब सदा अन्नदाता गृहस्थके ही घर आता है। पत्नीके साथ सम्भोग करनेवाला तथा झूठ बोलनेवाला है, वह गृहस्थ जब भक्तिपूर्वक उस भूखे अतिथिको अन्न ये सभी नीच योनियोंमें जन्म लेते हैं। जो यज्ञ करानेके देता है तो उसकी तपस्यामें हिस्सा बँटा लेता है। अतः योग्य नहीं है ऐसे मनुष्यसे जो यज्ञ कराता, लोकनिन्दित मनुष्य समस्त आश्रमोंमें श्रेष्ठ इस गृहस्थाश्रमका सदा पुरुषसे याचना करता, सदा कोपसे युक्त रहता, पालन करता है और इसी मानवोचित भोगोंका उपभोग साधुओंको पीड़ा देता, विश्वासघात करता, अपवित्र रहता करके अन्तमें स्वर्गको जाता है—इसमें तनिक भी और धर्मको निन्दा करता है-इन पापोंसे युक्त होनेपर सन्देह नहीं है। देवि ! सदा गृहस्थ-धर्मका पालन मनुष्यको आयु शीघ्र नष्ट हो जाती है, ऐसा जानकर [पापका करनेवाले मनुष्योंके पास पाप कैसे आ सकता है। सर्वथा त्याग करके] विशेषरूपसे दान करना उचित है। * धादर्थं च कार्म च मोक्षं च त्रितयं लभेत् । तस्माद्धर्म समौहेत विद्वान् स बहुधा स्मृतः ॥ (७५ । २) + गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपस्लाकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते । निवृत्तरागस्य तपोवन गृह गृहाश्रमोऽतो गदितः स्वधर्मः ।। (७५। ८) + गृहाश्रमः पुण्यतमः सर्वदा सीर्थवद्गृहम् । अस्मिन् गृहाश्रमे पुण्ये दान देव विशेषतः॥ -- देवानां पूजनं यत्र अतिथीनां तु भोजनम् । पथिकाना च शरणमतो धन्यतमो मतः ।। (७५ । १२-१३)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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