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________________ उत्तरखण्ड ] • संवत्सरदीप-व्रतकी विधि और महिमा . ६२९ 'देवदेवेश्वर ! मनोहर सुगन्धसे भरा यह परम पवित्र स्थापना की है; यह अखण्ड अग्निहोत्ररूप है। इससे दिव्य वनस्पतिका रसरूप धूप आपकी सेवामें प्रस्तुत है; भगवान् केशव मुझपर प्रसन्न हों। आपको नमस्कार है, आप इसे स्वीकार करें। तत्पश्चात् इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए वेदोंके दीपका मन्त्र स्वाध्याय तथा ज्ञानयोगमें तत्पर रहे। पतितों, पापियों दीपस्तमो नाशयति दीप: कान्तिं प्रयच्छति। और पाखण्डी मनुष्योंसे बातचीत न करे। रातको गीत, तस्माद्दीपप्रदानेन प्रीयतो मे जनार्दनः ।। नृत्य, बाजे आदिसे, पुण्य प्रन्थोंके पाठसे तथा भाँति 'दीप अन्धकारका नाश करता है, दीप कान्ति भाँतिके धार्मिक उपाख्यानोंसे मन बहलाते हुए प्रदान करता है; अतः दीपदानसे भगवान् जनार्दन मुझपर उपवासपूर्वक जागरण करे। इसके बाद सबेरा होनेपर प्रसन्न हों।' पूर्वाह्नके नित्य-कर्मोका अनुष्ठान करके भक्तिपूर्वक नैवेद्य-मन्त्र ब्राह्मणोंको भोजन कराये तथा अपनी शक्ति के अनुसार नैवेद्यमिदमन्नार्थ देवदेव जगत्पते। उनकी पूजा करे। फिर स्वयं भी पारण करके ब्राह्मणोंको लक्ष्म्या सह गृहाण स्वं परमामृतमुत्तमम्॥ प्रणाम कर विदा करे । इस प्रकार दृढ़ संकल्प करके एक 'देवदेव ! यह अन्न आदिका बना हुआ नैवेद्य वर्षतक दिन-रात उक्त नियमसे रहे। एक या आधे पल सेवामें प्रस्तुत है; जगदीश्वर ! आप लक्ष्मीजीके साथ इस सोनेका दीपक बनाये; उसके लिये बत्ती चाँदीकी बतायी परम अमृतरूप उत्तम नैवेद्यको ग्रहण कीजिये। गयी है, जो दो या ढाई पलकी होनी चाहिये। घीसे भरा तदनन्तर श्रीजनार्दनका ध्यान करके शङ्खमें जल हुआ घड़ा हो तथा उसके ऊपर ताँबका पात्र रखा रहे। और हाथमें फल लेकर भक्तिपूर्वक अर्घ्य निवेदन करे; मुक्तिकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको भक्तिपूर्वक अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है भगवान् लक्ष्मीनारायणको प्रतिमा भी यथाशक्ति सोनेकी जन्मान्तरसहस्त्रेण यन्मया पातकं कृतम्। बनवानी चाहिये । इसके बाद [वर्ष पूर्ण होनेपर] विद्वान् तत्सर्व नाशमायातु प्रसादात्तव केशव ॥ पुरुष साधु एवं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे। बारह "केशव । हजारों जन्मोंमें मैंने जो पातक किये हैं, ब्राह्मण हों-यह उत्तम पक्ष है। छः ब्राह्मणोंका होना वे सब आपकी कृपासे नष्ट हो जायें।' मध्यम पक्ष है। इतना भी न हो सके तो तीन ब्राह्मणोंको इसके बाद घी अथवा तेलसे भरा हुआ एक सुन्दर ही निमन्त्रित करे । इनमेंसे एक कर्मनिष्ठ एवं सपत्नीक नवीन कलश ले आकर भगवान् लक्ष्मीनारायणके सामने ब्राह्मणकी पूजा करे। वह ब्राह्मण शान्त होनेके साथ ही स्थापित करे। कलशके ऊपर ताँबे या मिट्टीका पात्र विशेषतः क्रियावान् हो। इतिहास-पुराणोंका ज्ञाता, रखे। उसमें नौ तन्तुओके समान मोटी बत्ती डाल दे तथा धर्मज्ञ, मृदुल स्वभावका, पितृभक्त, गुरुसेवापरायण तथा कलशको स्थिरतापूर्वक स्थापित करके वहाँ वायुरहित देवता-ब्राह्मणोंका पूजन करनेवाला हो। पाद्य-अHदान गृहमे दीपक जलाये। देवर्षे ! फिर पवित्रतापूर्वक पुष्प आदिकी विधिसे वस्त्र, अलंकार तथा आभूषण अर्पण और गन्ध आदिसे कलशकी पूजा करके निम्नाङ्कित करते हुए पत्नीसहित ब्राह्मणदेवकी भक्तिपूर्वक पूजा मन्त्रसे शुभ संकल्प करे करके भगवान् लक्ष्मीनारायणको तथा बत्तीसहित कामो भूतस्य भव्यस्य सम्राडेको विराजते। दीपकको भी ताम्रपात्रमें रखकर घोसे भरे हुए घड़ेके दीपः संवत्सर यावन्ययाय परिकल्पितः। साथ ही उस ब्राह्मणको दान कर दे । देवर्षे ! उस समय अग्रिहोत्रमविच्छिन्नं प्रीयतां मम केशवः ॥ निनाङ्कित मन्त्रसे परम पुरुष नारायणदेवका ध्यान भी "भूत और भविष्यके सम्राट् तथा सबकी कामनाके करता रहेविषय एक-अद्वितीय परमात्मा सर्वत्र विराजमान है। अविद्यातमसा व्याप्त संसारे पापनाशनः । मैंने एक वर्षतक प्रज्वलित रखनेके लिये इस दीपककी ज्ञानप्रदो मोक्षदश्च तस्माइत्तो पयानघ ।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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