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________________ १२८ • अर्चयस्थ हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण धारण करनेसे ब्राह्मण निश्चय ही मुक्तिका भागी होता नहीं होती। ब्रह्मन्.! इस पृथ्वीपर जो शराबी, स्त्री और है।* मृत्युके समय भी जिसके ललाटपर गोपीचन्दनका बालकोकी हत्या करनेवाले तथा अगम्या स्त्रीके साथ तिलक रहता है, वह विमानपर आरूढ़ हो विष्णुके परम समागम करनेवाले देखे जाते हैं, वे भगवद्भक्तोंके पदको प्राप्त होता है। नारद ! कलियुगमें जो नरश्रेष्ठ दर्शनमात्रसे पापमुक्त हो जाते हैं। मैं भी भगवान् गोपीचन्दनका तिलक धारण करते हैं, उनकी कभी दुर्गति विष्णुको भक्तिके प्रसादसे वैष्णव हुआ हूँ। संवत्सरदीप-व्रतकी विधि और महिमा नारदजी बोले-भगवन् ! अब मुझे सब व्रतोंमें चन्दनयुक्त जलसे स्नान कराये । तत्पश्चात् इस प्रकार कहेप्रधान 'संवत्सरदीप' नामक व्रतको उत्तम विधि बताइये, स्नातोऽसि लक्ष्म्या सहितो देवदेव जगत्पते । जिसके करनेसे सब व्रतोंके अनुष्ठानका फल निस्संदेह मां समुद्धर देवेश घोरात् संसारबन्धनात् ॥ प्राप्त हो जाय, सब कामनाओंकी सिद्धि हो तथा सब 'देवदेव ! जगत्पते ! देवेश्वर ! आप लक्ष्मीजीके पापोंका नाश हो जाय। साथ स्रान कर चुके हैं। इस घोर संसार-बन्धनसे मेरा महादेवजीने कहा-देवर्षे ! मैं तुम्हें एक उद्धार कीजिये।' पापनाशक रहस्य बताता हूँ, जिसे सुनकर ब्रह्महत्यारा, इसके बाद वैदिक तथा पौराणिक मत्रोंसे भक्तिगोधाती, मित्रहन्ता, गुरुस्त्रीगामी, विश्वासघाती तथा क्रूर पूर्वक लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुका पूजन करे। 'अतो हृदयवाला मनुष्य भी शाश्वत मोक्षको प्राप्त होता है तथा देव' इस सूक्तसे अथवा पुरुषसूक्तसे पूजा करनी अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार करके विष्णुलोकको जाता चाहिये। अथवाहै। वह रहस्य संवत्सरदीपवत है, जो बहुत ही श्रेयस्कर नमो मत्स्याय देवाय कूर्मदवाय वै नमः । व्रत है। मैं उसकी विधि और महिमाका वर्णन करूँगा। नमो वाराहदेवाय नरसिंहाय वै नमः ।। हेमन्त ऋतुके प्रथम मास-अगहनमे शुभ एकादशी वामनाय नमस्तुभ्यं परशुरामाय ते नमः । तिथि आनेपर ब्राह्ममुहूर्तमें उठे और काम-क्रोधसे रहित नमोऽस्तु रामदेवाय विष्णुदेवाय ते नम ॥ हो नदीके संगम, तीर्थ, पोखरे या नदीमें जाकर स्नान करे नमोऽस्तु बुद्धदेवाय कल्किने व नमो नमः । अथवा मनको वशमें रखते हुए घरपर ही स्नान करे। नमः सर्वात्मने तुभ्यं शिरसेत्यभिपूजयेत् ।। स्नान करनेका मन्त्र इस प्रकार है 'मत्स्य, कच्छप, वाराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, स्नातोऽहं सर्वतीर्थेषु गर्ने प्रस्रवणेषु च। राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्की -ये दस अवतार धारण नदीषु सर्वतीर्थेषु तत्स्त्रानं देहि मे सदा ।। करनेवाले आप सर्वात्माको मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार 'मैं सम्पूर्ण तीर्थो, कुण्डों, झरनों तथा नदियोंमें स्नान करता हूँ।' यों कहकर पूजन करे। कर चुका । जल ! तुम मुझे उन सबमें स्नान करनेका अथवा भगवान्के जो केशव' आदि प्रसिद्ध नाम फल प्रदान करो। हैं, उनके द्वारा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। तदनन्तर देवताओं और पितरोंका तर्पण करके जप धूपका मन्त्र करनेके अनन्तर जितेन्द्रिय पुरुष देवदेव भगवान् लक्ष्मी- वनस्पतिरसो दिव्यः सुरभिर्गन्धवाछुचिः । नारायणका पूजन करे। पहले पञ्चामृतसे नहलाकर फिर धूपोऽयं देवदेवेश नमस्ते प्रतिगृह्यताम् । * तुलसीपत्रमालां च तुलसीकाष्ठसंभवाम् । धृत्वा वै ब्राह्मणो भूयान्मुक्तिभागी न संशयः ॥ (३० । १९)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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