SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 488
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८८ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .. [संक्षिप्त पयपुराण देवपुरके राजकुमार रुक्माङ्गदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूर्छित होना वात्स्यायन बोले-फणीश्वर ! जो भक्तोकी पीड़ा श्रीरामचन्द्रजीका वह शोभाशाली अश्व उस वनमें आ दूर करनेके लिये नाना प्रकारकी कीर्ति किया करते हैं, पहुँचा। उसके ललाटमें स्वर्णपत्र बँधा हुआ था। उन श्रीरघुनाथजीकी कथा सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं शरीरका रंग गङ्गाजलके समान स्वच्छ था । परन्तु केसर होती-अधिकाधिक सुननेकी इच्छा बढ़ती जाती है। और कुङ्कमसे चर्चित होनेके कारण कुछ पीला दिखायी वेदोको धारण करनेवाले आरण्यक मुनि धन्य थे, देता था। वह अपनी तीव्र गतिसे वायुके वेगको भी जिन्होंने श्रीरघुनाथजीका दर्शन करके उनके सामने ही तिरस्कृत कर रहा था। उसका स्वरूप अत्यन्त कौतूहलसे अपने नश्वर शरीरका परित्याग किया था। शेषजी ! अब भरा हुआ था। उसे देखकर राजकुमारकी स्त्रियोंने यह बताइये कि महाराजका वह यज्ञ-सम्बन्धी अश्व कहा-'प्रियतम ! स्वर्णपत्रसे शोभा पानेवाला यह वहाँसे किस ओर गया, किसने उसे पकड़ा तथा महान् अश्व किसका है? यह देखने में बड़ा सुन्दर है। वहाँ रमानाथ श्रीरघुनाथजीको कीर्तिका किस प्रकार आप इसे बलपूर्वक पकड़ ले।' विस्तार हुआ? राजकुमारके नेत्र लीलायुक्त चितवनके कारण बड़े शेषजीने कहा-ब्रह्मर्षे! आपका प्रश्न बड़ा सुन्दर जान पड़ते थे। उसने स्त्रियोंकी बातें सुनकर सुन्दर है। आप श्रीरघुनाथजीके सुने हुए गुणोंको भी नहीं खेल-सा करते हुए एक ही हाथसे घोड़ेको पकड़ लिया। सुने हुएके समान मानकर उनके प्रति अपना लोभ प्रकट उसके भालपत्रपर स्पष्ट अक्षर लिखे हुए थे। राजकुमार करते हैं और बारम्बार उन्हें पूछते हैं। अच्छा, अब उसे बाँचकर हंसा और उस महिला-मण्डलमें इस प्रकार आगेकी कथा सुनिये। बहुतेरे सैनिकोंसे घिरा हुआ वह बोला-'अहो ! शौर्य और सम्पत्तिमें मेरे पिता महाराज घोड़ा आरण्यक मुनिके आश्रमसे बाहर निकला और वीरमणिकी समानता करनेवाला इस पृथ्वीपर दूसरा कोई नर्मदाके मनोहर तटपर भ्रमण करता हुआ देवनिर्मित नहीं है, तथापि उनके जीते-जी ये राजा रामचन्द्र इतना देवपुर नामक नगरमें जा पहुँचा । जहाँ मनुष्योंके घरोकी अहङ्कार. कैसे धारण करते है ? पिनाकधारी भगवान् दीवारें स्फटिक मणिकी बनी हुई थीं तथा वे गृह अपनी शङ्कर जिनकी सदा रक्षा करते रहते हैं तथा देवता, दानव ऊँचाईके कारण हाथियोंसे भरे हुए विन्ध्याचल पर्वतका और यक्ष-अपने मणिमय मुकुटोंद्वारा जिनके चरणोंकी उपहास करते थे। वहाँकी प्रजाके घर भी चाँदीके बने वन्दना किया करते हैं, वे महाबली मेरे पिताजी ही इस हुए दिखायी देते थे तथा उनके गोपुर नाना प्रकारके घोड़ेके द्वारा अश्वमेध यज्ञ करें। इस समय यह माणिक्योंद्वारा बने हुए थे जिनमें भाँति-भांतिकी विचित्र घुड़सालमें जाय और मेरे सैनिक इसे ले जाकर वहाँ मणियाँ जड़ी हुई थीं। उस नगरमें महाराज वीरमणि राज्य बाँध दें।' इस प्रकार उस घोड़ेको पकड़कर राजा करते थे, जो धर्मात्माओंमें अग्रगण्य थे। उनका विशाल वीरमणिका ज्येष्ठ पुत्र रुक्माङ्गद अपनी पलियोंके साथ राज्य सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न था। राजाके पुत्रका नगरमें आया। उस समय उसके मनमें बड़ा उत्साह भरा नाम था रुक्माङ्गद । वह महान् शूरवीर और बलवान् हुआ था। उसने पितासे जाकर कहा-'मैं रघुकुलके था। एक दिन वह सुन्दर शरीरवाली रमणियोंके साथ स्वामी श्रीरामचन्द्रका घोड़ा ले आया हूँ। यह इच्छानुसार विहार करनेके लिये वनमें गया और वहाँ प्रसन्नचित्त चलनेवाला अद्भुत अश्व अश्वमेध यज्ञके लिये छोड़ा होकर मधुर वाणीमें मनोहर गान करता हुआ विचरने गया था। रामके भाई शत्रुघ्न अपनी विशाल सेनाके साथ लगा। इसी समय परम बुद्धिमान् राजाधिराज इसकी रक्षाके लिये आये हैं।' महाराज वीरमणि बड़े
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy