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________________ स्वर्गखण्ड] • भगवद्धक्तिकी प्रशंसा तथा हरिभजनकी आवश्यकता . ४०५ अपनी मृत्युके समान समझे और मनको प्रयत्नपूर्वक मेरे विचारसे इस संसारमें श्रीहरिकी भक्ति दुर्लभ भगवान् गोविन्दके चरण-कमलोंमें लगावे । श्रीगोविन्दके है। जिसकी भगवान्में भक्ति होती है, वह मनुष्य चरणोंकी सेवा इहलोक और परलोकमें भी सुख निःसंदेह कृतार्थ हो जाता है। उसी-उसी कर्मका अनुष्ठान देनेवाली है। उसे छोड़कर कौन महामूर्ख पुरुष स्त्रीके करना चाहिये, जिससे भगवान् प्रसन्न हों। भगवान्के चरणोंका सेवन करेगा। भगवान् जनार्दनके चरणोंकी संतुष्ट और तृप्त होनेपर सम्पूर्ण जगत् संतुष्ट एवं तृप्त होता सेवा मोक्ष प्रदान करनेवाली है तथा स्त्रियोंकी योनिका है। श्रीहरिकी भक्तिके बिना मनुष्योंका जन्म व्यर्थ बताया सेवन योनिके ही संकटमें डालनेवाला है।* योनिसेवी गया है। जिनकी प्रसन्नताके लिये ब्रह्मा आदि देवता भी पुरुषको बार-बार योनिमें ही गिरना पड़ता है; यन्त्रमें कसे यजन करते हैं, उन आदि-अन्तरहित भगवान् नारायणका जानेवालेको जैसा कष्ट होता है, वैसी ही यातना उसे भी भजन कौन नहीं करेगा? जो अपने हृदयमें श्रीजनार्दनके भोगनी पड़ती है। परन्तु फिर भी वह योनिकी ही युगल चरणोंकी स्थापना करता है, उसकी माता परम अभिलाषा करता है। यह पुरुषकी कैसी विडम्बना है। सौभाग्यशालिनी और पिता महापुण्यात्मा हैं। 'जगद्वन्द्य इसे जानना चाहिये। मैं अपनी भुजाएँ ऊपर उठाकर जनार्दन ! शरणागतवत्सल !' आदि कहकर जो मनुष्य कहता हूँ, मेरी उत्तम बात सुनो-श्रीगोविन्दमें मन भगवान्को पुकारते हैं, उनको नरकमें नहीं जाना लगाओ, यातना देनेवाली योनिमें नहीं पड़ता। जो स्त्रीकी आसक्ति छोड़कर विचरता है, वह मानव विशेषतः ब्राहाणोंका, जो साक्षात् भगवानके पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। यदि स्वरूप हैं, जो लोग यथायोग्य पूजन करते हैं, उनके दैवयोगसे उत्तम कुलमें उत्पन्न सती-साध्वी स्त्रीसे ऊपर भगवान् प्रसन्न होते हैं। भगवान् विष्णु ही मनुष्यका विवाह हो जाय तो उससे पुत्रका जन्म होनेके ब्राह्मणोंके रूपमें इस पृथ्वीपर विचरते हैं। ब्राह्मणके पश्चात् फिर उसके साथ समागम न करे। ऐसे पुरुषपर बिना कोई भी कर्म सिद्ध नहीं होता । जिन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान् जगदीश्वर संतुष्ट होते हैं, इसमें तनिक भी संदेह ब्राह्मणोंका चरणोदक पीकर उसे मस्तकपर चढ़ाया है, नहीं है। धर्मज्ञ पुरुष स्त्रीके सङ्गको असत्सङ्ग कहते हैं। उन्होंने अपने पितरोंको तृप्त कर दिया तथा आत्माका भी उसके रहते भगवान् श्रीहरिमें सुदृढ़ भक्ति नहीं होती। उद्धार कर लिया। जिन्होंने ब्राह्मणोंके मुखमे इसलिये सब प्रकारके सङ्गोंका परित्याग करके सम्मानपूर्वक मधुर अन्न अर्पित किया है, उनके द्वारा भगवान्की भक्ति ही करनी चाहिये। साक्षात् श्रीकृष्णके ही मुखमें वह अत्र दिया गया है। * मैथुनाद् बलहानिः स्थानिद्रातितरुणायते । निद्रयापहतज्ञानो झल्पायुजर्जायते नरः ॥ तस्मात् प्रयततो धीमात्रारी मृत्युमिवात्मनः । पश्येदगोविन्दपादाब्जे मनो वै रमयेद बधः॥ इहामुत्र सुखं तद्धि गोविन्दपदसेवनम् । विहाय को महामहो नारीपाद ही सेवते ॥ जनार्दनाङ्घिसेवा हि पुनर्भवदायिनी । नारीणां योनिसेवा हि योनिसंकटकारिणी ॥ (६१ । ३२-३५) + ऊर्ध्वबाहुरहं वच्मि शृणु मे परम वचः । गोविन्दे घेहि हदयं न योनौ यातनाजुषि ॥ (६१ । ३७) हरिभक्तिक्ष लोकेत्र दुर्लभा हि मता मम । हरौ यस्य भवेद् भक्तिः स कृतार्थो न संशयः ।। ततदेवाचरेत्कर्म हरिः प्रीणाति येन हि । तस्मिंस्तुष्टे जगन्तुष्ट प्रीणिते प्रीणितं जगत्॥ हरौ भक्ति विना नृणां वृथा जन्म प्रकीर्तितम् । ब्रह्मादयः सुरा यस्य यजन्ते प्रीतिहेतवे। नारायणमनाद्यन्तं न त सेवेत को जनः। तस्य माता महाभागा पिता तस्य महाकृती। जनार्दनपदद्वन्द्व हृदये येन धार्यते ॥ जनार्दन जगद्वन्ध शरणागतवत्सल । इतीरयन्ति ये मां न तेषी निरये गतिः ।। (६१।४२-४६)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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