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________________ ४०४ . अवयव हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ************ **************** नारीकी भक्तिका आश्रय लेते हैं, उन्हें भगवान्‌की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है। * द्विजो! बहुत-सी राक्षसियाँ कामिनीका वेष धारण करके इस संसारमें विचरती रहती हैं, वे सदा मनुष्योंकी बुद्धि एवं विवेकको अपना ग्रास बनाया करती हैं। विप्रगण ! जबतक किसी सुन्दरी स्त्रीके चञ्चल नेत्रोंका कटाक्ष, जो सम्पूर्ण धर्मोका लोप करनेवाला है, मनुष्यके ऊपर नहीं पड़ता तभीतक उसकी विद्या कुछ करनेमें समर्थ होती है, तभीतक उसे ज्ञान बना रहता है। तभीतक सब शास्त्रोंको धारण करनेवाली उसकी मेधा शक्ति निर्मल बनी रहती है। तभीतक जप तप और तीर्थसेवा बन पड़ती है। तभीतक गुरुकी सेवा संभव है और तभीतक इस संसार सागरसे पार होनेके साधनमें मनुष्यका मन लगता है। इतना ही नहीं, बोध, विवेक, सत्सङ्गकी रुचि तथा पौराणिक बातोंको सुननेकी लालसा भी तभीतक रहती है। जो भगवच्चरणारविन्दोंके मकरन्दका लेशमात्र भी पाकर आनन्दमन हो जाते हैं, उनके ऊपर नारियोंके चञ्चल कटाक्ष-पातका प्रभाव नहीं पड़ता। द्विजो ! जिन्होंने प्रत्येक जन्ममें भगवान् हृषीकेशका सेवन किया है, ब्राह्मणोंको दान दिया है तथा अग्निमें हवन किया है, उन्हींको उन उन विषयोंकी ओरसे वैराग्य होता है। स्त्रियोंमें सौन्दर्य नामकी वस्तु ही क्या है? पीब, मूत्र, विष्ठा, रक्त, त्वचा, मेदा, हड्डी और मज्जा - इन सबसे युक्त जो ढाँचा है, उसीका नाम है शरीर भला इसमें सौन्दर्य कहाँसे आया। उपर्युक्त वस्तुओंको पृथक्-पृथक् करके यदि छू लिया जाय तो स्नान करके ही मनुष्य शुद्ध * नारीणां नयनादेशः सुराणामपि दुर्जयः। स येन विजितो लोके हरिभक्तः स उच्यते ॥ माद्यन्ति मुनयोऽप्यत्र नारीचरितलोलुपाः । हरिभक्तिः कुतः पुंसां नारीभक्तिजुषां द्विजाः ॥ होता है। किन्तु ब्राह्मणो! इन सभी वस्तुओंसे युक्त जो अपवित्र शरीर है, वह लोगोंको सुन्दर दिखायी देता है। अहो! यह मनुष्योंकी अत्यन्त दुर्दशा है, जो दुर्भाग्यवश घटित हुई है। पुरुष उभरे हुए कुचोंसे युक्त शरीरमें स्त्री-बुद्धि करके प्रवृत्त होता है; किन्तु कौन स्त्री है ? और कौन पुरुष ? विचार करनेपर कुछ भी सिद्ध नहीं होता। इसलिये साधु पुरुषको सब प्रकारसे स्त्रीके सङ्गका परित्याग करना चाहिये। भला, स्त्रीका आश्रय लेकर कौन पुरुष इस पृथ्वीपर सिद्धि पा सकता है। कामिनी और उसका सङ्ग करनेवाले पुरुषका सङ्ग भी त्याग देना चाहिये। उनके सङ्गसे रौरव नरककी प्राप्ति होती है, यह बात प्रत्यक्ष प्रतीत होती है। जो लोग अज्ञानवश स्त्रियोंपर लुभाये रहते हैं, उन्हें दैवने ठग लिया है। नारीकी योनि साक्षात् नरकका कुण्ड है। कामी पुरुषको उसमें पकना पड़ता है। क्योंकि जिस भूमिसे उसका आविर्भाव हुआ है, वहीं वह फिर रमण करता है। अहो ! जहाँसे मलजनित मूत्र और रज बहता है, वहीं मनुष्य रमण करता है! उससे बढ़कर अपवित्र कौन होगा। वहाँ अत्यन्त कष्ट है; फिर भी मनुष्य उसमें प्रवृत्त होता है! अहो! यह दैवकी कैसी विडम्बना है ? उस अपवित्र योनिमें बारंबार रमण करना - यह मनुष्योंकी कितनी निर्लज्जता है! अतः बुद्धिमान् पुरुषको स्त्रीप्रसङ्गसे होनेवाले बहुतेरे दोषोंपर विचार करना चाहिये । मैथुनसे बलकी हानि होती है और उससे उसको अत्यन्त निद्रा (आलस्य) आने लगती है। फिर नींदसे बेसुध रहनेवाले मनुष्यकी आयु कम हो जाती है। इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको उचित है कि वह नारीको [ संक्षिप्त पद्मपुराण तत्र ये हरिपादाब्जमधुलेशप्रमोदिताः । तेषां न नारीलोलाक्षिक्षेपण हि प्रभुर्भवेत् ॥ जन्म जन्म इषीकेशसेवनं यैः कृतं द्विजाः । द्विजे दत्तं हुतं वह्नौ विरतिस्तत्र तत्र हि ॥ --------------- (६१ । १२-१३) * कामिनीकामिनीसङ्गसङ्गमित्यपि संत्यजेत् । तत्सङ्गाद् रौरवमिति साक्षादेव प्रतीयते ॥ (६१ । १९-२० ) (६१ । २७)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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