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________________ • अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण यह सुनकर ऋषियोंने सूतजीसे पूछा-'मुने! चरणोंका मुझे दर्शन प्राप्त हुआ है। आज आपने दर्शन भीष्मजीके साथ पुलस्त्य ऋषिका समागम कैसे हुआ? दिया और विशेषतः मुझे वरदान देनेके लिये गङ्गाजीके पुलस्त्यमुनि तो ब्रह्माजीके मानसपुत्र हैं। मनुष्योंको तटपर पदार्पण किया; इतनेसे ही मुझे अपनी तपस्याका उनका दर्शन होना दुर्लभ है। महाभाग ! भीष्मजीको सारा फल मिल गया। यह कुशकी चटाई है, इसे मैंने जिस स्थानपर और जिस प्रकार पुलस्त्यजीका दर्शन अपने हाथों बनाया है और [जहाँतक हो सका है] इस हुआ, वह सब हमें बतलाइये।' बातका भी प्रयत्न किया है कि यह बैठनेवालेके लिये सूतजीने कहा-महात्माओ! साधुओंका हित आराम देनेवाली हो; अतः आप इसपर विराजमान हों। करनेवाली विश्वपावनी महाभागा गङ्गाजी जहाँ पर्वत- यह पलाशके दोनेमें अर्घ्य प्रस्तुत किया गया है; मालाओंको भेदकर बड़े वेगसे बाहर निकली हैं, वह इसमें दूब, चावल, फूल, कुश, सरसों, दही, शहद, जौ महान् तीर्थ गङ्गाद्वारके नामसे विख्यात है। पितृभक्त और दूध भी मिले हुए हैं। प्राचीन कालके ऋषियोंने भीष्मजी वहीं निवास करते थे। वे ज्ञानोपदेश सुननेकी यह अष्टाङ्ग अर्घ्य ही अतिथिको अर्पण करनेयोग्य इच्छासे बहुत दिनोंसे महापुरुषोंके नियमका पालन करते बतलाया है।' थे। स्वाध्याय और तर्पणके द्वारा देवताओं और पितरोंकी अमिततेजस्वी भीष्मके ये वचन सुनकर ब्रह्माजीके तृप्ति तथा अपने शरीरका शोषण करते हुए भीष्मजीके पुत्र पुलस्त्यमुनि कुशासनपर बैठ गये। उन्होंने बड़ी ऊपर भगवान् ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुए। वे अपने पुत्र प्रसन्नताके साथ पाद्य और अर्घ्य स्वीकार किया। मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजीसे इस प्रकार बोले-'बेटा ! तुम भीष्मजीके शिष्टाचारसे उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ। वे प्रसन्न कुरुवंशका भार वहन करनेवाले वीरवर देवव्रतके, जिन्हें होकर बोले-'महाभाग ! तुम सत्यवादी, दानशील भीष्म भी कहते हैं, समीप जाओ। उन्हें तपस्यासे निवृत्त और सत्यप्रतिज्ञ राजा हो। तुम्हारे अंदर लज्जा, मैत्री और करो और इसका कारण भी बतलाओ। महाभाग भीष्म क्षमा आदि सद्गुण शोभा पा रहे हैं। तुम अपने पराक्रमसे अपनी पितृभक्तिके कारण भगवानका ध्यान करते हुए गङ्गाद्वारमें निवास करते हैं। उनके मनमें जो-जो कामना हो, उसे शीघ्र पूर्ण करो; विलम्ब नहीं होना चाहिये।' पितामहका वचन सुनकर मुनिवर पुलस्त्यजी गङ्गाद्वारमें आये और भीष्मजीसे इस प्रकार बोले'वीर ! तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके अनुसार कोई वर माँगो। तुम्हारी तपस्यासे साक्षात् भगवान् ब्रह्माजी प्रसन्न हुए है। उन्होंने ही मुझे यहाँ भेजा है। मैं तुम्हें मनोवाञ्छित वरदान दूंगा।' पुलस्त्यजीका वचन मन और कानोंको सुख पहुँचानेवाला था। उसे सुनकर भीष्मने आँखें खोल दी और देखा पुलस्त्यजी सामने खड़े हैं। उन्हें देखते ही भीष्मजी उनके चरणोपर गिर पड़े। उन्होंने अपने सम्पूर्ण शरीरसे पृथ्वीका स्पर्श करते हुए उन मुनिश्रेष्ठको साष्टाङ्ग प्रणाम किया और कहा-'भगवन् ! आज मेरा जन्म सफल हो गया। यह दिन बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि आज आपके विश्ववन्द्य
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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