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________________ C स्वर्गखण्ड ] WO-MARRI गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन ************ मृत्युका समाचार स्वयं दूसरोंको न सुनाये। माल बेचते समय बेमोलका भाव अथवा झूठा मूल्य न बतावे। विद्वान्‌को उचित है कि वह मुखके निःश्वाससे और अपवित्रावस्थामें अग्निको प्रज्वलित न करे। पहलेकी की हुई प्रतिज्ञा भङ्ग न करे। पशुओं, पक्षियों तथा व्याघ्रोंको परस्पर न लड़ाये। जल, वायु और धूप आदिके द्वारा दूसरेको कष्ट न पहुँचाये। पहले अच्छे कर्म करवाकर बादमें गुरुजनोंको धोखा न दे। सबेरे और सायंकालको रक्षाके लिये घरके दरवाजोंको बंद कर दे। विद्वान् ब्राह्मणको भोजन करते समय खड़ा होना और बातचीत करते समय हँसना उचित नहीं है। अपनेद्वारा स्थापित अभिको हाथसे न छूए तथा देरतक जलके भीतर न रहे। अग्रिको पंखेसे, सूपसे, हाथसे अथवा मुँहसे न फूँके । विद्वान् पुरुष परायी स्त्रीसे वार्तालाप न करे। जो यज्ञ ★ गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन व्यासजी कहते हैं— द्विजवरो ! ब्राह्मणको शूद्रका अन नहीं खाना चाहिये; जो ब्राह्मण आपत्तिकालके बिना ही मोहवश या स्वेच्छासे शूद्रान्न भक्षण करता है, वह मरकर शूद्र- योनिमें जन्म लेता है जो द्विज छः मासतक शूद्रके कुत्सित अन्नका भोजन करता है, वह जीते जी ही शूद्रके समान हो जाता है और मरनेपर कुत्ता होता है। मुनीश्वरो ! मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रजिसके अन्नको पेटमें रखकर प्राण त्याग करता है, उसीकी योनिमें जन्म लेता है। नट, नाचनेवाला, चाण्डाल, चमार, समुदाय तथा वेश्या - इन छः के अन्नका परित्याग करना चाहिये। तेली, धोबी, चोर, शराब बेचनेवाले, नाचनेगानेवाले, लुहार तथा मरणाशौचसे युक्त मनुष्यका अन्न भी त्याग देना चाहिये। * कुम्हार, चित्रकार, सूदखोर पतित, द्वितीय पति स्वीकार करनेवाली स्त्रीके पुत्र, ३९३ ------ कराने योग्य नहीं है, उसका यज्ञ न कराये। ब्राह्मण कभी अकेला न चले और समुदायसे भी दूर रहे। कभी देवालयको बायें रखकर न जाय, वस्त्रोंको कूटे नहीं और देवमन्दिरमें सोये नहीं। अधार्मिक मनुष्योंके साथ भी न चले। रोगी, शूद्र तथा पतित मनुष्योंके साथ भी यात्रा करना मना है। द्विज बिना जूतेके न चले। जल आदिका प्रबन्ध किये बिना यात्रा न करे। मार्गमें चिताको बायें करके न जाय योगी, सिद्ध, व्रतधारी, संन्यासी, देवालय, देवता तथा याज्ञिक पुरुषोंकी कभी निन्दा न करे। जान-बूझकर गौ तथा ब्राह्मणकी छायापर पैर न रखे। झाड़की धूलसे बचकर रहे स्नान किया हुआ वस्त्र तथा घड़ेसे छलकता हुआ जल— इन दोनोंके स्पर्शसे बचना चाहिये। द्विजको उचित है कि वह अभक्ष्य वस्तुका भक्षण और नहीं पीने योग्य वस्तुका पान न करे। अभिशापग्रस्त सुनार, रङ्गमञ्चपर खेल दिखाकर जीवननिर्वाह करनेवाले, व्याध, वन्ध्या, रोगी, चिकित्सक (वैद्य या डाक्टर), व्यभिचारिणी स्त्री, हाकिम, नास्तिक, देवनिन्दक, सोमरसका विक्रय करनेवाले, स्त्रीके वशीभूत रहनेवाले, स्त्रीके उपपतिको घरमें रखनेवाले, पुरुषपरित्यक्त, कृपण, जूठा, खानेवाले, महापापी, शस्त्रोंसे जीविका चलानेवाले, भयभीत तथा रोनेवाले मनुष्यका अन भी त्याज्य है। ब्रह्मद्वेषी और पापमें रुचि रखनेवालेका अन्न, मृतकके श्राद्धका अन्न, बलिवैश्वदेवरहित रसोईका अन्न तथा रोगीका अन भी नहीं खाना चाहिये। संतानहीन स्त्री, कृतघ्न, कारीगर और नाजिर तथा परिवेत्ता (बड़े भाईको अविवाहित छोड़कर अपना विवाह करनेवाले) का अन्न भी खाने योग्य नहीं है। पुनर्विवाहिता स्त्री तथा दिधिषूपतिका अन्न भी त्याज्य है अवहेलना, विवर्जयेत् ॥ * नटानं नर्तकात्रं च चाण्डालचर्मकारिणाम् । गणात्रं गणिकात्रं च षडनं च चक्रोपजीविरजकतस्करध्वजिनां तथा। गान्धर्वलोहकारात्रं मृतकानं विवर्जयेत् ॥ ( ५६ ॥ ४-५ ) + जो कामवश भाईकी विधवा पत्नीके साथ सम्भोग करता है, उसे 'दिधिषूपति' कहते हैं। बड़ी बहिनके अविवाहित होनेपर भी यदि छोटी बहिन विवाह कर ले तो बड़ी बहिन 'दिधिषू' कहलाती है, उसका पति 'दिधिपू-पति' है।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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